शनिवार, 26 अक्टूबर 2013

धन लक्ष्मी साधना एवं प्राप्ति के उपाय - पुस्तक (पेज न. 2)

                             
        
                                            पेज न. 2                
             
                             पंच दिवसीय उत्सव चक्र 

               कार्तिक मास की अमावस्या, जिस दिन चंद्रमा के प्रकाश का पूर्णरूपेण लोप तथा अंधकार का साम्राज्य रहता है दीपावली पर्व मनाया जाता है, परन्तु उसके पूर्व एवं पश्चात भी दो दो महत्वपूर्ण पर्व भी मनाये जाते है। इस प्रकार सब पर्व मिलकर पंच दिवसीय उत्सव चक्र का रूप धारण करते है।
             दीपावली के पूर्व त्रयोदशी महर्षि धनवंतरी की उपासना होती है। इसे धन तेरस कहते है। कहा जाता है कि पंचम वेद के रूप में जाने जाने वाले 'आयुर्वेद के आदिदेव भगवान धन्वन्तरि भी क्षीर सागर के मंथन से उत्पन्न चौदह रत्नो में से एक थे। इसी पर्व पर मृत्यु के देवता यमराज को भी याद किया जाता है।संध्या को उनकी स्मृति में घर के मुख्य द्वार पर दीपक रखा जाता है। धन सम्पति की प्राप्ति हेतु कुबेर के देवता पूजा की जाती है तथा पूजा स्थल पर दीपदान किया जाता है। इस दिन अपने सामर्थ्य अनुसार किसी भी रूप से चाँदी एवं अन्य धातु खरीदना भी अति शुभ है।
    
धन्वंतरि कथा:- धनतेरस से जुडी कथा के अनुसार पुराने जमाने में एक राजा थे हिम। उनके यहाँ पुत्र हुआ।                  कुंडली बनाने पर ज्योतिषियों ने कहा कि राजकुमार अपनी शादी के चौथे दिन सांप काटने से मर जायेगा। इस पर राजा चिन्तित रहने लगे। जब राजकुमार कि उम्र 16 वर्ष कि हुई, तो उसकी शादी एक सुन्दर, सुशील, समझदार राजकुमारी से कर दी गयी। राजकुमारी माँ लक्ष्मी कि बड़ी भक्त थी। राजकुमारी को भी अपने पति पर आने वाली विपत्ति का पता लग चुका था। वह काफी द्रढ़ इच्छाशक्ति कि धनी थी। उसने चौथे दिन का इंतजार पूरी तैयारी के साथ किया। जिस रास्ते से सांप आने की आशंका थी, वहा सोने-चाँदी के सिक्के, हीरे-जवाहरात आदि बिछे दिए। पूरे घर को रोशनी से जगमगा दिया गया। कोई भी कोना ऐसा नही था, जहा अँधेरा दिख रहा हो। इतना ही नही पति को जगाये रखने के लिए पहले कहानी सुनाई और फिर लक्ष्मी स्तवन भजन करने लगी।
                         इस दौरान जब मृत्यु के देवता यमराज ने सांप का रूप धारण कर कमरे में प्रवेश करने की कोशिश की, तो रोशनी कि वजह से उनकी आँखे चुंधिया गयी। इस कारण सांप दूसरा रास्ता खोजने लगा और रेंगते हुए उस जगह पहुच गया, जहा सोने-चाँदी के सिक्के रखे हुए थे। डसने का मौका न मिलता देख, विषधर भी वही कुंडली लगाकर बैठ गया, राजकुमारी के मधुर भजन स्तवन सुनने लगा। इसी बीच सुबह हो गयी, टाइम ख़त्म हो चुका था। यम देवता वापस जा चुके थे। इस तरह राजकुमारी ने अपने पति को मौत के पंजे में पहुचने से पहले ही छुड़ा लिया। यह घटना जिस दिन घटी, वह धनतेरस का दिन था। इस दिन को 'यमदीप दान' भी कहते है। यमराज की अराधना, सोने-चाँदी के सिक्को (कुबेर) कि पूजा एवं मुख्यद्वार एवं आँगन में दीप माला को इसी कथा के सन्दर्भ में देखा जाता है।                                                                                                             कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी यानि नरक चतुर्दशी धन तेरस के दूसरे दिन मनाया जाता है। मन जाता है कि इस दिन जो व्यक्ति दीपदान करता है उसे नरक में नही जाना पड़ता। इस दिन घर का कूड़ा-करकट साफ करके संध्या को दीपक जलाते है, जिससे एक दीपक यमराज के लिए भी होता है। इस दिन भगवान कृष्ण ने नरकासुर नामक अत्याचारी शासक का वध करके संसार को भय मुक्त किया था, इस विजय की स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है ऐसी मान्यता है। इसे छोटी दीपावली भी कहते है। इन तीन दिनों धनतेरस, नरक चतुर्दशी तथा दीपावली के दिन दीपक जलाने का कारण यह भी बताया गया है  कि भगवान के वामन अवतार ने राजा बली कि पृथ्वी को नपा था, उन्होंने तीन पगो में पृथ्वी, पाताल तथा बली के शरीर को भी नाप लिया था। छोटी दीपावली को ग्यारह या इक्कीस अथवा इकत्तीस दीपक जलाने का विधान है। इन दीपको में पांच या सात दीपक घी के जलाने चाहिए।                                                                                                                                     कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा की जाती है। द्वापर में जब ब्रजवासी देवराज इंद्र के भय से उनकी छप्पन भोगो से पूजा किया करते थे। उसी समय श्री कृष्ण ने इंद्रा पूजा का निषेध करके समस्त गोकुल वासियो को गौ व गोवर्धन पूजा का महत्व बताया। गाय से दुध, मूत्र एवं गोबर प्राप्त होता है जो भूमि उपाजाऊ होने में सहायक है। गोवर्धन पर्वत पर जड़ी बूटियों का खजाना है। पर्वत पर उगी हुई घास पशुओ के लिए भोजन है। गोकुलवासियों गोवर्धन पुजा कि एवं इंद्रा के भोग को कृष्णा ने गोवर्धन रूप में प्रकट होकर ग्रहण कर लिया। इस घटना से क्रुद्ध देवराज इंद्रा ने ब्रज भूमि को डूबने के लिए मूसलाधार वृष्टि कर दी। श्री कृष्ण ने अपनी लीला को दिखाते हुए गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठिका अंगुली पर,उठा लिया और अतिवृष्टि से होने वाली धन-जन-गौधन कि हानि से सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र कि रक्षा की। इंद्रा का मोह भंग हो गया उन्होंने श्री कृष्णा की शरण ली और सम्पूर्ण गोकुल ग्राम में उत्सव मनाया गया। प्रति वर्ष गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव (सामूहिक भोजन) मनाने की आज्ञा दी। तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाता है।
           कार्तिक शुक्ल पक्ष कि दितिया को भाई दूज मनायी जाती है। इसे यम दितीया भी कहते है। यम सूर्य के पुत्र है जो पत्नी संज्ञा से उत्पन्न है। प्राचीन मान्यता है कि इस दिन यम की बहन यमी ने अपने भाई को भोजन का निमंत्रण दिया था। यम व्यस्त होते हुए भी बहन के निमंत्रण पर गये थे। हिन्दू समाज में भाई-बहन के प्रेम के प्रतिक के रूप में दो त्यौहार रक्षा बंधन तथा भाई दूज आते है। इन दोनों दिनों में बहिने अपने भाई की लम्बी उम्र की कामना करती है तथा उन्हें तिलक लगाती है। भाई यथा योग्य बहन को उपहार भेंट करता है। इस पर्व पर यम एवं यमुना नदी जो कि भाई बहन के रूप में माने गए है, उनकी पुजा का विधान है।

भाई दूज की कथा:- पौराणिक कथा के अनुसार यम का अपनी जुड़वा बहिन यमुना से बहुत प्रेम                                 था। इनकी माता अपने पति सूर्य के असहनीय ताप के डर से उत्तरी ध्रुव में रहने लगी। माता के चले जाने के कारण यम यमलोक चले गए तथा यमुना मथुरा के पास रहने लगी। वर्षो वियोग के बाद
इसी दिन भाई बहिन यमुना के घर आपस में मिले यमुना अति प्रसन्न हुई, भाई (यम) को तिलक लगाकर भोजन करवाया तभी से यह पर्व यम दितीय अथवा भाई दूज के नाम से मनाया जाने लगा।
                इसके उपरांत दीपावली पर्व पञ्च दिवसीय उल्लास मई वातावरण में समाप्त हो जाता है। दीपावली पर्व जहा प्रकाश का पर्व है, वही यह बहुदेवो कि आराधना का भी संगम है।  
    
लक्ष्मी पूजन कथा :- पद्मवसिनी महालक्ष्मी के पूजन के सन्दर्भ में कई कथाएँ प्रचिलित है।  पुराणो में एक कथा के अनुसार प्रभाद ग्रस्त , द्वंद कि राज लक्ष्मी महर्षि दुर्वासा के श्राप से समुद्र मंथन में प्रविष्ट हो गयी तब देवताओ ने प्रार्थना की कि वे समुद्र से बहार प्रकट हो जाये। इस क्रम में समुद्र मंथन से इनके प्रकट होने का प्रसंग सर्वविदित है। खैर जब महालक्ष्मी प्रगट हुई तो देवताओ , ऋषि मुनियो ने मंत्रोच्चारण के साथ इनका अभिषेक किया तब इनके कमल सदृश्य मनोहर नेत्रो के अवलोकन मात्र से सम्पूर्ण विश्व सुख शांति तथा धन समृद्धि से संपन्न हो गया। इंद्रा देव ने इनकी दिव्य स्तुति कि जिनमें कहा गया कि महालक्ष्मी कि दृष्टि मात्र से ही निर्गुण मनुष्य में विद्या , विनय , शील , गांभीर्य , औदार्य आदि सभी गुण प्राप्त हो जाते है।  वह व्यक्ति समृद्धि संपन्न होकर आदर व् श्रद्धा का पात्र बन जाता है। विश्व भर में इस आदिशक्ति , भगवान विष्णु कि सहचरी , देवी कमला कि उपासना जगदाघर शक्ति , आगम निगम सभी के सामान रूप में प्रचिलित है।  इनकी गणना जातीय ग्रंथो में दस महाविद्या के अंतर्गत कमलात्मिक नाम से हुई है।  
          एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर विनम्र शब्दो में भगवान श्री कृष्ण से प्रार्थना कि हे भगवान ! आप दीन रक्षक , कृपालु , भक्तवत्सल है।  ऐसा कोई सरल उपाय बताइये , जिससे हमारा नष्ट हुआ राज्य पुन: प्राप्त हो तथा राज्य लक्ष्मी की कृपा हो। 
तब श्री कृष्ण बोले , हे राजन जब दैत्य राजा बलि राज्य किया करते थे उस समय उनके राज्य में सम्पूर्ण प्रजा  प्रसन्न व् सुखी थी , धन धान्य कि प्रचुरता थी अभाव व् कष्ट का कही नाम निशान तक नहीं था। बलि  मेरा भी प्रिय भक्त था।  उसने एक बार एक सौ अश्वमेघ यज्ञ करने कि प्रतिज्ञा की। उनमे से जब 99 यज्ञ पूर्ण  हो चुके और मात्र एक यज्ञ ही शेष था , तब इंद्र को अपना सिंहासन छिन जाने का भय हुआ। कारण कि 100 अश्वमेघ करने वाला इंद्रासन का अधिकारी होता है।  इस भय के कारण व् रुद्रादि देवताओ के पास गया , परन्तु उसका वे कुछ भी उपाय नहीं कर सके। तब समस्त देवता इंद्र को साथ लेकर क्षीर सागर में शेषशय्या पर विराजमान श्री विष्णु भगवान के यहाँ गए।  इंद्र ने पुरुष सुक्तादि वेदमंत्रो से भगवान कि स्तुति कर अपना दुःख भगवान विष्णु को सुनाया। तब विष्णु बोले कि इंद्र , तुम घबराओ मत , तुम्हारे इस भय का मै अंत कर दूंगा।  यह आश्वासन देकर उन्हें पुन: इंद्रलोक भेज दिया। इसके बाद भगवान ने वामन का रूप धारण कर सौवा यज्ञ कर रहे राजा बलि के पास गए और राजा से मात्र तीन पैर पृथ्वी दान में मांगी। दान का संकल्प हाथ में लेकर भगवान ने एक पैर से साडी पृथ्वी नाप ली। दूसरे पैर से अंतरिक्ष और तीसरा चरण रखने कि जगह न होने पर राजा बलि ने अपना सिर आगे रख दिया। यह देखकर भगवान विष्णु अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने राजा बलि से वर मांगने को कहा।  
              तब वर रूप में राजा बलि ने कहा कि कार्तिक कृष्ण पक्ष कि त्रयोदशी , चतुर्दशी एव अमावस्या को पृथ्वी पर मेरा शासन रहे। इन तीन दिनों में प्रजा दीपदान , दीप आदि करके उत्सव मनाये तथा महालक्ष्मी जी का पूजन हो और लक्ष्मी का उस घर में निवास हो। 
           इस प्रकार वर मांगने पर भगवान विष्णु ने कहा कि हे भगवान विष्णु ने कहा कि हे राजन यह वर हमने तुम्हे दिया। इस दिन लक्ष्मीपूजन , दीप पूजन से घर में लक्ष्मी का निवास होगा और अंत में वह मेरे धाम को आश्रय पायेगा। यह कहकर भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताल लोक का राज्य देकर इंद्र का भय दूर किया। ऐसा माना जाता है कि तभी से दीपावली का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। यह महालक्ष्मी पूजन से सम्बंधित मुख्य कथा है। 
                पौराणिक पांडुलिपियों में लक्ष्मी पूजन कथा का इस प्रकार उल्लेख मिलाता है। सत्य शर्मा नाम के ब्राम्हण अत्यंत निर्धन थे। पत्नी और संतानो के भरण पोषण में असमर्थ एक दिन वह इस विपदा से  चरम स्थिति में त्रस्त होकर आत्महत्या के लिए घर से जंगल कि निकल पड़े।  एक निश्चय कि ऐसे संतप्त - अशक्त जीवन से क्या लाभ ? क्यों न इस जीवन का अंत कर दिया जाये।  तभी मार्ग में उनके सामने नारद मुनि आ गये। उन्होंने पूछा - क्या हुआ ब्राम्हण ? आप इतने उद्विग्न और अशांत क्यों है ? सत्य शर्मा ने सत्य बता दिया कि मेरी दृष्टि के सामने परिवार भूखा मरे , यह देखा नहीं जाता , तब नारदमुनि ने उन्हें ब्रम्हा जी कि तपस्या के लिए प्रेरित किया। तपस्या प्रारम्भ हुई।  एक दिन ब्रम्हा जी प्रगट हुए , पूछा - क्या चाहिए ? वरदान मांगो। तब सत्य शर्मा ने कहा धन चाहिए , वह भी इतना कि उसकी पीढ़िया सुख सम्पन्नता से जीवन बिता सके।  ब्रम्हा जी ने कहा - इसके लिए तो तुम्हे भगवान विष्णु कि तपस्या करनी होगी। ब्राम्हण ने विष्णु को प्रसन्न करने कि तपस्या प्रारम्भ कर दी तो वे भी प्रकट हो गए।  उन्होंने धन कि प्राप्ति के लिए सत्य शर्मा को शिव शंकर कि तपस्या करने को कहा।  
        सत्य शर्मा समझ नहीं पाये कि आखिर माजरा क्या है ? ब्रम्हा और विष्णु ने उन्हें क्यों टरका दिया ? मनोवांछित वरदान क्यों नहीं दिया ? अंतत : उन्होंने शिवजी कि तपस्या कर प्राणांत के निश्चय कर डाला।  घोर तपस्या से शिव प्रसन्न हुए कहा - ब्राम्हण वर मांगो , मैं प्रसन्न हुआ। ब्राम्हण ने धन प्राप्ति का वरदान माँगा। शिव ने कहा - हे ब्राम्हण ! तुम उज्जैन नगरी चले जाओ , वहां तुम्हारा मनोरथ सफल होगा। सत्य शर्मा सपरिवार उज्जैन नगरी चले गए। एक दिन दोपहर का समय। सत्य शर्मा कि पत्नी घर कि छत पर गोबर के उपले सुखा रही थी , तभी आकाश में उडती एक चील के मुँह से एक चमचमाता सफ़ेद मोतियो का हार वह गिर पड़ा।  सत्य शर्मा कि पत्नी ने उसे उठाया , देखा यह मुल्य वान हार वहा कि महारानी का था।  राजा ने शहर में घोषणा करवा दी थी कि इस हार को ढूंढ कर लाएगा उसे मुँह माँगा ईनाम दिया जायेगा। ब्राम्हण कि पत्नी ने पति को हार देते हुए कहा कि इसे वह राजा को लौटा दे , क्या पता शायद अपना भाग्य बदल जाए। सत्य शर्मा ने जब राजा को यह हार लौटाया तो राजा प्रसन्न हो गए।  उन्होंने कहा - बोलो ब्राम्हण क्या मंगाते हो ?
        सत्य शर्मा ने थोडा सोचकर कहा - महाराज आने वाली कार्तिक अमावस्या कि रात केवल उसके घर में दीपक जले और शेष पूरी उज्जयनी में अँधेरा रहे। राजा ने कहा - ठीक है ब्राम्हण , अगर तुम्हे इसी में प्रसन्नता है , और कुछ मिलता है तो ऐसा ही होगा। 
         समयांतराल के बाद कर्तिक अमावस्या कि रात भी आ गयी। उस रात पूरी उज्जयनी नगरी अंधकार में डूबी रही केवल सत्य शर्मा के घर में ही कुछ दीपक जल रहे थे।  उसकी पत्नी ने घर को साफ़ सुथरा कर रखा था। अपने वहाँ पर आरूढ़ लक्ष्मी को उज्ज्यनि नगरी में घुप्प अँधेरा देखकर घोर आश्चर्य हुआ। वह सिर्फ सत्य शर्मा के घर प्रकाश देखकर धरती पर उतरी और दरवाजा खटखटाया।  भीतर से आवाज आयी - कौन है , लक्ष्मी ने जवाब दिया - में धन कि देवी लक्ष्मी हु , भीतर से पूछा कि आप यहाँ क्या करने आयी है , किन्ही संपन्न सेठो के यहाँ जाइये।  यहाँ तो गरीबो और निर्धन ब्राम्हण का घर है। 
       लक्ष्मी ने कहा - नहीं उसे किसी के घर नहीं जाना है।  वह इसी घर में आएगी , सत्य शर्मा ने कहा - आप तो चंचला है , आज यहाँ तो कल वहां , फिर मेरे यहाँ आने से क्या लाभ ? लक्ष्मी ने कहा - नहीं ब्राम्हण में आपके घर में स्थायी रूप से रहूंगी , आप विधिपूर्वक मेरी पूजा अर्चना करो। 
        सत्य शर्मा कि धर्म पत्नी ने घर का दरवाजा खोला तो महालक्ष्मी भीतर प्रविष्ट हो गयी।  उन्होंने मंत्रोच्चारण के साथ विधिवत पूजा कि और उनके चरण स्पर्श कर कृपा करने कि प्रार्थना की।  इसी प्रसंग से लक्ष्मी पूजन का प्रारम्भ मन जाता है। 

                                      यहाँ तक दितीय चरण समाप्त होता है।

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