सोमवार, 28 अक्टूबर 2013

धन लक्ष्मी साधना एवं प्राप्ति के उपाय - पुस्तक (पेज न. 4)

                                           

                                                       पेज न. 4

                                      दीपावली पंचमहापर्वीय साधनाएँ                                
                                    धनत्रयोदशी साधना 

                       जैसा कि हम सभी जानते है कि धन त्रयोदशी के दिन आयुर्वेदाचार्य धनवंतरी जी का जन्म हुआ था, साथ ही धनाध्यक्ष कुबेर की पूजा-अर्चना का भी विशेष महत्व है। इसलिए इस दिन धनाध्यक्ष कुबेर लक्ष्मी की साधना का विशेष महत्व है, जिससे घर का खजाना भी सदैव हरा-भरा रहे।
                   
                         साधना सामग्री:-  कुबेर लक्ष्मी चौतीसा युक्त त्रिशक्ति यन्त्रम्, गौमती चक्र, अभिमंत्रित सरसो एवं मंत्रसिद्ध लक्ष्मी दायक मणिया।
                               इस साधना को संपन्न करने हेतु अपने मंदिर या पूजा कक्ष या घर के किसी भी कोने में तीन बाजोट स्थापित करे तथा उन पर लाल वस्त्र बिछाकर बायीं ओर बाजोट पर चावल से शुभ का चिन्ह (शुभ) बनाये तथा दायी ओर के बाजोट पर चावल से लाभ का चिन्ह अर्थात लाभ लिखे। फिर बाये ओर दाये वाले बाजोट के चारो कोनो में गेहूँ की छोटी-छोटी ढेरी बनाकर उन दोनों पर चार-चार तेल के दीपक प्रज्वलित करे व सभी दीपक में थोड़ी थोड़ी अभिमंत्रित सरसो डाले तत्पश्चात बायीं ओर वाले बाजोट पर जहाँ शुभ का चिन्ह लिखा है, उस पर बड़ा पीतल अथवा मिटटी के तेल का दीपक व दायी ओर वाले बाजोट जहाँ लाभ का चिन्ह लिखा है, उस पर भी पीतल या मिटटी का दीपक प्रज्वलित करे। तत्पश्चात मध्य के बाजोट पर चावल से श्री लिखे व् बाजोट के चारो कोनो में उड़द की ढेरी बनाकर उस प्राण प्रतिष्टा युक्त अभिमंत्रित एक एक गोमती चक्र विराजमान करे। उसके बाद एक शुद्ध चांदी या स्टील की थाली लेकर उसमे पुष्प का आसान बनाकर उस पर प्राण प्रतिष्ठा युक्त अभिमंत्रित कुबेर लक्ष्मी व चौतीसा युक्त त्रिशक्ति यन्त्र स्थापित करे तथा उसके चारो तरफ आपके घर के सोने-चांदी के सिक्को को भी थाली में यन्त्र के चारो ओर रख दे और यन्त्र पर मंत्र सिद्ध लक्ष्मी दायक मणिया स्थापित कर दे फिर उस पर सवा पाव पंचामृत द्वारा निम्न मंत्र का जप करते हुए अभिषेक करे-
            यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धनधान्यधिपतये धनधान्यसमृद्धि में देहि दापय स्वाहा।
               अभिषेक पूर्ण हो जाने के पश्चात् यन्त्र, सिक्के एवं मणियो को शुद्ध जल से स्नान करवाये तथा दूसरी शुद्ध चांदी या स्टील की थाली लेकर उसमे अष्टगंध से "श्री" का चिन्ह बनाकर, उस पर पुष्पो का आसन बनाकर मध्यवाले बाजोट पर रखे व उसमे त्रिशक्ति यन्त्रम्, सिक्के एवं मणियो को भी विराजमान करे। फिर हाथ में जल लेकर विनियोग करे। -
            अस्य श्री कुबेरमंत्रस्य विश्रवा ऋषि: बृहती छन्द: घनेश्वर: कुबेरो देवता ममाभीष्ट सिद्धये जपे विनियोग।
                यन्त्र को विराजमान करने के बाद कुबेर का ध्यान करे -
                                       मनुजवाहमविमानवरस्थितं गरुड़रत्ननिभं निधिनायकम्। 
                                       शिवसखं कुमुकुरादिविभूषितं वरगदे दघतं भज तुन्दिलम्।।
               कुबेर का ध्यान करते हुए सभी सामग्रियों पर केसर-अष्टगंध द्वारा तिलक करे, अक्षत चढ़ाये, अबीर-गुलाल, पुष्प, नैवेध चढ़ाते रहे- ॐ श्रीं ॐ ह्नीं श्रीं ह्नीं क्लिं वित्तश्वराय नम:
                     मंत्र जाप पूर्ण हो जाने के बाद कुबेर जी का ध्यान करते हुए क्षमा प्रार्थना करे कि हे कुबेर देवता, मैने मन्त्रहीन, क्रियाहीन एवं बुद्धिहीन होकर जो पूजन किया है उसे स्वीकार करे। कोई त्रुटि हुई हो तो क्षमा करे तथा मुझे आशीर्वाद प्रदान करे कि मेरे घर में सदैव सुख समृद्धि एवं शांति रहे, चिराय़ू हो एवं आपकी कृपा दृष्टि सदैव बनी रहे। इस तरह कुबेर ध्यान एवं क्षमा प्रार्थना के पश्चात् नैवेद्म (प्रसाद) परिवार के सभी सदस्य ग्रहण करे। सभी पूजन सामग्री यथास्थिति में रहने दे तथा अगले दिन रूप चतुर्दशी कि सांयकाल में उसी स्थिति में पूजा प्रारम्भ करे। कुबेर उपासना तथा ध्यान से दुःख दरिद्रा दूर होकर अन्नत ऐश्वर्य कि प्राप्ति होती है। शिव के सखा होने से कुबेर भक्त की सभी आपत्तियों से रक्षा कर साधक में आध्यात्मिक उन्नति, शांति, सौभाग्य आदि सात्विक गुण प्रदान करते है।

                                              रूप चतुर्दशी साधना 

                     सुख-सौभाग्यदायक कलश, लक्ष्मी प्रिय सिक्के, अभिमंत्रित हल्दी की गांठ एवं 11 लक्ष्मी दायक कौड़िया आदि साधना सामग्री तैयार रखे।
                     यह साधना रूप चतुर्दशी की शाम 07 से 09 के मध्य संपन्न करनी है। इस साधना को केवल स्त्रिया ही कर सकती है और पति इनके पास बैठकर हवन संपन्न कर सकते है।
                    सर्वप्रथम धन त्रयोदशी के दिन पूजित कुबेर लक्ष्मी चौतीस युक्त त्रिशक्ति यन्त्रं को अपने घर के पूजा कक्ष में स्थापित करे तथा उस पर सौभाग्यशाली मणिया भी यन्त्र पर स्थापित कर दे। साथ ही दाये व बाये बाजोट पर रखी सामग्रीयो को यथास्थिति में रहने दे और दोनों बाजोट के  दीपक बदलकर नए दीपक प्रज्ज्वलित करे एवं मध्य के बाजोट पर पूर्व की सामग्री हटाकर एक पात्र में रख दे तथा इस पर पुन: लाल वस्त्र बिछाकर उसके चारो कोनो में लाल मसूर की चार ढेरी बनाकर उस पर मंत्र चैतन्ययुक्त एक-एक हकीक पत्थर रख दे। फिर मध्य में चावल द्वारा स्वस्तिक चिन्ह बना ले। एक शुद्ध चाँदी या स्टील की थाली लेकर उसमे अष्टगंध, केसर या कुमकुम चावल और गुलाब की पंखुड़िया डाले और महालक्षमी से मन ही मन पति की दीर्घायु, सुख शांति, आर्थिक उन्नति एवं जो भी समस्या हो उसे दूर करने की कामना करे और मेरी साधना सफल हो "अहंकरिस्यामि" कहते हुए जल छोड़ दे। फिर अपने हाथश्शुद्ध जल से धोले। अब पीले चावल ले या हल्दी युक्त चावल की तीन मुठ्ठी थाली में डाले। बाद में थाली में सुख सौभाग्यर्धक कलश विराजमान करे तथा कलश के चारो ओर जो सिक्के धनत्रयोदशी की पूजा में रखे थे उन्हें भी चारो ओर रख दे। फिर कलश के अंदर लक्ष्मी प्रिय सिक्के डाले। उन पर केसर, कुमकुम से तिलक करे, अक्षत चढ़ावे, पुष्प नैवेद्य चढ़ावे फिर एक पात्र (कुण्ड) लेकर उसमे थोड़ी कपूर की टिकिया और अभिमंत्रित सिद्ध कमलगट्टे एवं हल्दी की गांठ उसमे डालनी है। फिर उन पर घी डालकर अग्नि प्रज्ज्वलित करे और निम्न मंत्र का उच्चारण करने के साथ साथ एक-एक कोडिया उसमे डालते रहे। चिंतन करे कि जैसे जैसे यह क्रिया संपन्न हो रही है, घर में व्याप्त दुःख, विपत्तिया, कष्ट एवं पति की सभी परेशानियां समाप्त हो रही है। मंत्र इस प्रकार है -
                                                           ॐ  ऐं  ऐं  अक्षय  लक्ष्मी  ऐं  ऐं  नम:।
                      इस मंत्र को 11 बार पढे और एक कौड़ी को अग्नि में डाले, फिर मंत्र को 11 बार पढ़े और एक कौड़ी अग्नि में डाले। यह प्रक्रिया दुहराकर सारी कौड़िया (11) अग्नि में डालनी है। साथ ही साथ घी व कपूर भी डालते रहे जिससे अग्नि निरंतर जलती रहे।
                      यह क्रिया संपन्न करने के पश्चात् माँ लक्ष्मी से आशीर्वाद मांगने की मुद्रा में प्रार्थना करे, तत्पश्चात सुख-सौभाग्यवर्द्धक कलश को अपनी तिजोरी में सिक्के सहित सादर विराजमान कर दे तथा बाकि बचे सिक्के पूजा कक्ष में रख दे। थाली में चावल लेकर घर के सभी कोनो में थोड़े-थोड़े डाल दे। कौड़िया पूर्ण रूपेण नही जलती इसलिये कौड़ियो को उठाकर अपने घर के उत्तर-पूर्व ईशान कोण में गड्ढा खोदकर गाड़ दे। काली हल्दी की राख को पूजा कक्ष या घर में रख दे तथा अगले दिन उसे अपने गले पर लगावे। ऐसा करने से पति की आयु में वृद्धि, पति-पत्नी में मनमुटाव ख़त्म तथा आर्थिक सुख समृद्धि एवं शांति प्राप्त होती है।

                                   विष्णु महालक्ष्मी साधना एवं पूजा  

              धन त्रयोदशी, रूप चतुर्दशी साधनाये प्रत्येक साक्षार व्यक्ति कर सकता है, विद्धान ब्राह्मण हो तो और भी अच्छा है, किन्तु दीपावली के दिन विष्णु महालक्ष्मी साधना और पूजा में विद्वान ब्राह्मण की आवश्यकता होती है। विद्वत् ब्रह्मण द्वारा की गयी साधना, पूजा-अर्चना ही श्रेयस्कर एवं फलीभूत होती है। दीपावली का दिन, जिसका सभी को वर्ष भर इंतजार रहता है प्रत्येक व्यक्ति माता लक्ष्मी का आशीर्वाद पाना चाहता है, किन्तु भगवान विष्णु को याद नही करता। कोई भी पत्नी अपने पति के बिना आपके यहाँ कैसे आएगी इसलिए दीपावली के विशेष अवसर पर माता लक्ष्मी के साथ शेष शैययाधारी भगवान विष्णु की पूजा करना अत्यंत आवश्यक है। इस दिन विष्णु-लक्ष्मी साधना  एवं पूजा संपन्न की जानी चाहिए।
                  साधना सामग्री:-  प्राण प्रतिष्ठित अभिमंत्रित विष्णु-लक्ष्मी प्रतिमा, अभिमंत्रित कमल पुष्प, सिंहासन, मंत्रसिद्ध माला, ब्राह्मण निर्देशित पूजन सामग्री, सौभाग्यदायक कलश, दीपक, शंख, कुबेर लक्ष्मी यन्त्र, बही रजिस्टर रोकड़ खाता, तराजू, लेखनी, दवात आदि।
                  साधना पूजा सामग्री:-  वैसे दीपावली की सम्पूर्ण रात्रि ही शुभ है, तथापि साधना-पूजा वृषभ एवं सिंह लग्न में करना सर्वश्रेष्ठ है। इसके लिए स्नानादि से निवृत होकर स्त्रिया लाल साड़ी एवं पुरुष श्वेत वस्त्र धारण करे। फिर दायी और बाये वाले बजट के मध्य में जहाँ शुभ और लाभ लिखा हुआ है, उस पर तांबे के कलश में पानी भरकर, उस पर अशोक वृक्ष के पत्ते लगाकर नारियल स्थापित करे तथा चारो ओर गेहुं की ढेरियों पर पुन: नए दीपक प्रज्ज्वलित करे और मध्य के बाजोट को पुन: साफ करके कपडा बिछा दे। तत्पश्चात मध्य के बाजोट पर चारो कोनो में चावल की ढेरिया बना दे और थाली लेकर उसमे पुष्प का आसन बनावे तथा उसमे मन्त्र चैतन्ययुक्त एवं अभिमंत्रित विष्णु लक्ष्मी प्रतिमा विराजमान करे तथा उनके आगे लक्ष्मी प्रिय कमल पुष्प रख दे।

                                       सांगपाग महालक्ष्मी पूजनम् 
                                             
                    पूजन की सामग्री विद्वान ब्राह्मण के निर्देशानुसार कटोरियों में रख देवे। केसर को घिसकर कटोरी में लेवे। कुमकुम का स्वास्तिक करे। उस पर कोरा तांबुल, सुपारी, मोली, गुड, धाणा, घ्रोब(पूर्वा), पैसा (मुद्रा) रखकर गदी बिछा देवे। फिर गदी पर यजमान बैठकर पूजन प्रारम्भ करे।
                   
                     शिखा (चोटी) बंधन करे:-      ॐ चिद्रुपिणी महाम्माये दिव्यतेज:समन्विते।
                                                                   तिष्ठ देवी शिखा बंधे तेजो वृद्धि: कुरुष्वमें।। ।।
                                           
                                                                   आचमन-प्राणायाम करे।
                                                                   फिर-ॐ अपवित्र: पवित्रोर्वा सर्वावस्थाडंगतोडपिवा।
                                                                   य: स्मरेतपुण्डरीकाक्षं स बाहयामभ्यवर: शुचि: क।। 2 ।।
                          इस मंत्र से वाम (बाया) हाथ में जल लेकर दाये (दक्षिण) हाथ से स्वयं एवं पूजा सामग्री पर जल के छींटे लगाने, श्री कृष्ण का ध्यान करने से अपवित्र भी पवित्र हो जाता है। इसके पश्चात् यजमान के ललाट में तिलक इस मंत्र से करे -
                                                        ॐ स्वस्तिना इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्तिन: पूषा विश्ववेदा:।
                                                        स्वस्तिनस्तारक्ष्र्यो अरिष्टनेमि: स्वस्तिनो बृहस्पतिद्रघतु:।। 3 ।।
                         
                             यजमान के कुमकुम तिलक करके अक्षत लगावे। पुरुष के दाये (जिमणे) हाथ व स्त्री के बाये (डावे) हाथ में मोली बांधे। सिर पर पगड़ी पहिने तथा या सिर पर मोली रखकर पूजन प्रारम्भ करे।

                           प्रथम नमस्कार करे:-  ॐ श्री मन्महागणाधिपतये नम:। इष्ट देवताओ नम: कुलदेवताभ्योनम:। ग्राम देवताभ्योनम:। स्थानदेवताभ्योन्म:। वास्तुदेवताभ्यो नम:। वाणी हिरण्यगर्भाभ्यां नम:। श्री लक्ष्मीनारायणाभ्याम् नम:। श्री उमामहेश्वराभ्याम् नम:। शची पुरन्दराभ्याम् नम:। मातृपितृचरण कमलेभ्यो नम:। श्री गुरुभ्यो नम:। परमगुरुभ्योनम:। परमेश्दी गुरुभ्योनम:। पराप्तरगुरुभ्यो नम:। सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम:। सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नम:। निर्विघन मस्तु।।
                         
              गणपति स्मरण:- 
                      ॐ समुखश्चेक दन्तश्च कपिलो गजकर्णक:। लम्बोदरश्च  विकटो विध्नाशोगणाधिप: ।। 1 ।।                             धुम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भाल चन्द्रो गजानन:। द्वादशे तानि नामानि य: पठेच्छ्रणुयादपि ।। 2।।
                      विधारंभे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा। संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्वस्य न जायते ।। 3।।
                      शुक्लाम्बर धरंदेवं शशिवर्ण चतुर्भुजम, प्रसन्नवदनं ध्यायेत सर्वविघ्नोपशान्तये ।। 4 ।।
                      अभिसितार्थ सिद्धयर्थ पूजितो य: सुरासुरै:। सर्व विघ्न हरस्तस्मै गणाधिपतये नम: ।। ।।
                      सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके। शरण्ये त्रयंबके गौरी नारायणी नमोस्तुते।। ।।
                      सर्वदा सर्वकार्येषु नास्तितेषाममंगल येषा ह्रदिस्थो भगवान मंगलायतनं हरि।। ।।
                      तदैव लग्न सुदिनं तदैव ताराबलं चन्द्र बलं तदैव। विधाबलं दैव बलं तदैव लक्ष्मीपते तेंघ्रियुगं                           स्मराभी ।। ।।
                      लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषा पराजय:। येषामिन्दिवरश्यामो ह्रदयस्थो जनार्दन:।। 9 ।।
                      यत्र योगीश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्घर:। तत्र श्री विर्जयो भूतिधुर्वा नीतिर्मतिमर्म ।। 10 ।।
                      सर्वेष्वारब्ध कार्येषु त्रयस्त्रि भुवनेश्वरा:। देना दिशन्तुन: सिद्धि ब्रहमेशान जनार्दना ।। 11 ।।
                      विनायकं गुरुं भानुं ब्रह्म विष्णु महेश्वरान। सरस्वती प्रणभयादौ सर्वकार्यार्थ सिद्धये ।। 12 ।।
                     अनन्यअश्चिन्तयन्तो माँ ये जना: पर्युपास्ते।तेषां नित्याभियुक्तानां योग क्षेम वहाभ्यम्।।13।।
                      स्मृते सकल कल्याण भाजन यत्र भाजते। पुरुष तमजं नित्यव्रजामि शरणं हरिम ।। 14 ।।
                      विश्वेशं माघवं ढुदीं दण्डपापी च भैरव। वंदे काशी गुहा गंगा भवानी मणिकर्णिकाम ।। 15 ।।
                     
          अथ संकल्प:-   ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्री मदभगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्री ब्रहमणोड द्वितीयेपराद्वेर श्री श्वेतवाराह कल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुग कली प्रथम चरणे जम्बुद्विये भरत खण्डे आर्यावर्तान्तगर्त ब्रहमाव्रतकदेशे कुमारिका क्षेत्रे श्री मन्महान्ध भागीरथ्या: पश्चिम दिग्भागे श्री मन्नर्प विक्रमादित्य राज्यात अमुक वर्षे, अमुक सवत्सरे, अमुकअयने, अमुकऋतो, अमुकमासे, अमुक पक्षे, अमुकतिथौ, अमुकवासरे, एवमादि ग्रह्गुण विशेषण विशिष्टे देशेकाले, अमुक गोत्रोत्प्न्नोह, अमुक नाम, मम सकुटंबस्य सपरिवारस्य कायिक, वाचिका, मानसिक सांसर्गिक चतुर्विध पाप क्षयपूर्वक सर्वापच्छन्ति पूर्वक, पुत्र पौत्र धनधान्य समृद्धि दीर्घायु ऐश्वर्याभिवृद्धयर्थम मम भवने स्थिर लक्ष्मी निवासार्थ सर्वाभीष्ट संसिद्य़र्थ सर्वविध व्यापारे उत्तरोत्तर लाभार्थ, सुवर्ण रजत मणि माणिक्य सम्पदा अभिवृद्धार्थ महालक्ष्मी देवता प्री त्यर्थ महालक्ष्मया: पुजनमहं करिष्ये।
                           ( यहाँ करिष्ये- अपने लिए पूजा पाठ करते समय।  करिष्यामि- यजमान के लिए पूजा पाठ करते समय।  कारयिष्ये- ब्राह्मण द्वारा पूजा पाठ कराना हो तो कहना चाहिए। )

                          दिग रक्षण:-   अप्सर्यन्तु ते भुता ये भुता भूमि संस्थिता। ये भुता विघ्नकर्तारस्ते-नश्यन्तु शिवज्ञया ।। 1।।     चारो दिशायों में से सरसो के दाने फेंके।
                        भैरव नमस्कार:-  ॐ तीक्ष्णदंष्ट्र महाकाय कल्पान्त दहनोपम। भैरवाय नमस्तुभ्यं मनुज्ञा दातु मह्रसी।। 2 ।।    ॐ भं भं भैरवाय नम:। भैरव को नमस्कार करे।
                        कलश पूजनम:-   ॐ वं वं वरुणाय नम:, सर्वे समुद्रा: सरितसतीर्थानी जलदा नदा:। आयान्तु देव पूजार्थ दुरित क्षय कारक: ( सम्मुखस्थ कलश के मोली बांधे, पांच पान, सुपारी, दूर्वा, मुद्रा, अक्षत व जल से पुरितकर ऊपर पूर्ण पात्र, लाल वस्त्र से वेष्टित सेदुरूप नारियल रखे )  कलश के चारो दिशाओ में चार बिंदिया देते हुए बोले- ॐ पूर्वे ऋग्वेदाय नमः, दक्षिणे यजुर्वेदय नमः, पश्चिमे सामवेदय नमः, उतरे अर्थववेदय नमः। हाथ जोड़े- ॐ कलशस्य मुखे विष्णु: कष्टे रुद्र: समाश्रित:। मुले तत्र स्थितो ब्रहमा मध्ये मातृगणा: स्मृता।।1।।
 कुक्षौ तु सागरा: सर्वे सप्रद्वीपा वसुंधरा। ऋग्वेदास्थ यजुर्वेद: सामवेदोहयथर्वण:।। 2 ।।
अङ्गेश्च सहिता: सर्वे कलशांतु समाश्रिता:। अत्रगायिनी सावित्री शांति: पुष्टि करी तथा ।। 3 ।।
आयान्तु मम शान्त्यर्थ द्रितक्षय कारका:। गंगे च यमुना चैव गोदावरी सरस्वती। नर्मदे सिंधु कावेरी जलेस्मिन सन्निधि कुरु ।। 4।।
ब्रह्माण्डोडरतीर्थानि करै:। स्प्रस्टानी ते रवे। तेन सत्येन में देव तीर्थ देहि दिवाकर।। 5।। ( आस्मिंकलशे वरुण सांडगं सपरिवार सायुध सशक्तिम आवाहयामि )
                          कलश प्रार्थना:-   देवदानव संवादे मध्यमाने महोदधौ। उत्पन्नोडसी तदा कुम्भ विघ्रतो विष्णुना स्वयं। त्वतोये सर्वतीर्थानि देवाः सर्वेत्वयि स्थिताः। त्वयि तिष्ठन्ति भूतानी त्वयि प्राणा: प्रतिष्ठिता:। शिव स्वयं त्वमेवाड़सी विष्णुस्त्वं च प्रजापति:। आदित्य वसवो रूद्र विश्वेदेवा: सपत्रक:। त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेपि यतः कामफल प्रदा:। त्वत्प्रसादाद इमा पूजां कर्तुमिदे जलोदभ्व। सानिध्य कुरु में देव प्रसन्नो भव सर्वदा। प्रसन्नोभव। वरदोभव (कलश का जल पूजा के लिए पंचपात्र में या अन्य पात्र में कुछ ले लेवे व् उस जल से भी छींटे डालकर प्रोक्षण करे। यजमान के सम्मुख दक्षिण दिशा को छोड़कर पाटा बिछाकर या अष्टदन बने कोष्ठक के बिच में कलश को स्थापित कर सकते है। कलश के मध्य सेंदरूप नारियल की पूजा कर लाल या पीला कपडा वेष्टित कर कलश के ऊपर रखे, ताम्बूल, पीपल या अशोक वृक्ष के पत्ते, कुमकुम अक्षत एवं पुष्पादि से पूजा कर सिक्का भी कलश में डाले।
                          दीप पूजनम्:-   भो दीपदेवी रूपस्त्वं कर्मसाक्षी ह्राविहनकृत। यवतकर्म समाप्ति: स्यात तावतवं सुस्थिरो भव ।। 1 ।।
                          शंख पूजनम:-   शंखादौ चन्द्रदेवतयं कुक्षेवरुण देवता। पृष्ठे प्रजापतिश्चैव अग्रे गंगा सरस्वती। त्रैलोक्ये यानि तीर्थानि वासुदेवस्य चाज्ञया। शंखे तिष्ठन्ति विरपेन्द्र तस्मशंख प्रपूजते। त्वं पूरा सगरोत्पन्नो विष्णुना विघ्रता करे। निर्मितः सर्वे देवैश्च पांचजन्य नमोस्तुते। ॐ पांच जनयाय विदभहे पावमानय धीमहि। तन्न: शंख प्रबोदयत। (शंख के चन्दन, पुष्प चढ़ावे)
                          घंटा पूजनम:-   आगमनार्थ तु देवानां गमनार्थ च रक्षसां। कुरुघंटे वरं नादं देवता स्थान सन्निघौ। प्रार्थना के बाद घण्टा बजाये और यथास्थान रख दे ( घण्टा को चन्दन-फूल से अलंकृत कर उक्त मंत्र पडे )
                         ॐ भूभुर्वः स्व: घन्टास्थापय गरुड़ाय नमः आवाहयामि। सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षत पुष्पाणि समर्पयामि नमस्करोमि।
                          इसके पश्चात् स्वस्ति पुष्याहवाहन भी करना चाहिए।
                           स्वस्त्ययन-  ॐ आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतोड़दबदासो अपरितस उद्विद:। देवा नो यथा सदमिद वृधे असन्नप्रयुवो रक्षितारो दिवे दिवे।।
                             देवना भद्रा सुमतिॠजूयतां देवना छुं रातिरभि नो निवर्तताम। देवानां छुं सख्यमुपसेदिभा वयं देवा न आयु: प्रतिरन्तु जीवसे।। तनपूर्वया निविदा हुम्हे वयं भंग मित्रमदिति दक्षमस्त्रिधम्। अर्यमण वरुण छुं सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत।। तन्नो वातो मयो भु वातु भेषज तन्मता पृथिवी तत्पिता ह्यो:। तद ग्रावान: सोमसुतो मयोभुवस्तदशविना श्रृणत घिषया युवम्।। तभीशान जगतस्तुसथुशासपति घीयनजीनवभव्से हुम्हे वयम। पूषा नो यथा वेदसांसद व्रघे रक्षिता प्युर्दब्ध स्व्स्तये।। सवस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा:। स्वस्ति नस्ताश्रयों अरिष्टनेमी स्वस्ति नो बृहस्पतिदर्घातु।। प्रषदश्वा मरुत: प्रश्नीमातर: शुभ यावानो विद्थेषु जगमय:। अग्निजिह्म मनव: सुरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह।।भद्र कर्णेभी: श्रृनुयाम देवा भद्र पश्येमाक्षभीर्यजत्रा:। स्थिरेरडगेस्तुष्टुवा घू सस्तनूभिवर्यशेमहि देवहित यदायुः। शतमिभु शरदो अंति देवा यत्रा नश्चक्रा जरस तनूनाम। पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्य रिरिश्तायुगन्ति:। अदितिगौरधितिरन्त्रिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्र:। विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिरजातमदितिरजनितवं।। घौ: शान्तिरन्तरिक्ष घूं शांति: पृथिवी शान्तिराप:  शांतिरोषिधय: शांति। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवाः शांतिब्रह्म शांतिः सर्व घुश्शन्ति: शान्तिरेव शांति: सा मा शान्तिरेधि।।यतो यतः समिहसे ततो नो अभयं कुरु। शं नः कुरु प्रजाभ्योडभय नः पशुभ्य:।। सुशान्तिर्भवतु।।
                          संक्षिप्त पुन्यहवाहनम:-   यजमान बोले- ब्रह्मा पुण्य महर्यच्च सृष्टय़ुत्पादनकारकम्।                                                                              वेद वृक्षोदवं नित्यं तत्पुन्याह ब्रुवन्तु नः।
                                                                   भो ब्राह्मणा: मम सकुट्मबस्य स परिवारस्य गृहे लक्ष्मी
                                                                   पूजन कर्मण: पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु।
                                                                   ब्राह्मण- ॐ पुण्याहं, ॐ पुण्याहं, ॐ पुण्याहं।
                                                                   ॐ पुनन्तु मा देवजना: पुनन्तु मनसाधिय:।                
                                                                   पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेद: पुनिहिमा।।
                                           यजमान बोले:-  पृथिव्यामुद्घ्रताया तु यत्कल्याण पुरा कृतम।
                                                                    ऋषिभि: सिद्धगन्धवेस्तत्कल्याण ब्रुवन्तु नः।
                        भो ब्राह्मणा: मम सकूटमबस्य सपरिवारस्य गृहे लक्ष्मीपूजन  कर्मण: कल्याण भवन्तो ब्रुवन्तु।                          ब्राह्मण:-  ॐ कल्याणम्, ॐ कल्याणम्, ॐ कल्याणम्
                                        ॐ  यथेमा वाचं कल्याणमावदानी जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्या घू शूद्राय चार्यय च स्वाय चरणाय च। प्रियो देवना दक्षिणाये दतुरिह भूयासभयं में कामः समृध्यतामुप मादो नमतु
                                           यजमान बोले:-   ॐ सागरस्य तू या ऋद्विर्महालक्ष्मयादिभि: कृता।
                                                                     संपूर्णा सुप्रभावा च तां च ऋद्वि ब्रुवन्तु नः।।
                       भो ब्राह्मणाः मम सकुट्मबस्य सपरिवारस्य गृहे महालक्ष्मीपूजन कर्मण: ऋद्वि भवन्तो ब्रुवन्तु।
                          ब्राह्मण:-  ॐ कर्म ऋध्यताम, ॐ कर्म ऋध्यताम, ॐ कर्म ऋध्यताम
                              ॐ सत्रस्य ऋद्विरस्यगनम ज्योतिरमृता अभूम। दिव पृथिव्यां अध्याडरूहामाविदाम देवान्त्स्वज्योर्ति:
                                           यजमान पुनः बोले:-  ॐ स्वस्तिस्तु याडविनशाख्या पुष्यकल्याणवृद्विदा।
                                                                            विनायकप्रिया नित्यं तां च स्वस्ति ब्रुवन्तु नः।
                       भो ब्राह्मणा: मम सकूटमबस्य सपरिवारस्य गृहे लक्ष्मीपूजन  कर्मण: स्वस्ति भवन्तो ब्रुवन्तु।
                         ब्राह्मण:-  ॐ आयुष्मते स्वस्ति, ॐ आयुष्मते स्वस्ति, ॐ आयुष्मते स्वस्ति
                               ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदा:। स्वस्ति नस्ताश्रर्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।।
                                            यजमान बोले:-  ॐ समुद्रमथानाज्जता जगदानन्दकारिका।
                                                                     हरिप्रिया चा मांगल्या तां श्रिय च ब्रुवन्तु नः।
                        भो ब्राह्मणा: मम सकूटमबस्य सपरिवारस्य गृहेकरिष्यमाणस्य महालक्ष्मी पूजनकर्माण: श्रीरस्तु इति भवन्तो ब्रुवन्तु।
                         ब्राह्मण:-  ॐ अस्तुश्री:, ॐ अस्तुश्री:, ॐ अस्तुश्री:
                                ॐ श्रीश्चते लक्ष्मीश्च पत्न्योवहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनो व्यातम्। इषणन्निषाणाभु म ईशाण सर्वलोक म ईशाण।
                                            यजमान बोले:-  ॐ मृकण्डसूनोरयुर्यद ध्रुवलोमश्योस्तथा।
                                                                     आयुषा तेन संयुक्त जीवेम शरदः शतम।।
                         ब्राह्मण:-  ॐ शतम जीवन्तु भवन्त:, ॐ शतम जीवन्तु भवन्त:,
                                        ॐ शतमिन्नु शरदो अंति देवा यत्रा नच्चक्रा जरसं तनूनाम।
                                        पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषताय़ुर्गान्तो:।।
                                           यजमान बोले:-  ॐ शिवगौरी विवाहे तु या श्री रामे नृपात्नजे।
                                                                    घनदस्य गृहे या श्रीरस्माकं सास्तु सञनि ।।
                     
                        ब्राह्मण:-  अस्तु श्री:, अस्तु श्री:, अस्तु श्री:।
                                         ॐ मनसः काममाकूति वाच: सत्यमशीय ।
                                         पशुना घूं रूपभन्नस्य रसोयश: श्री: श्रयता मयि स्वाहा ।।
                                                 यजमान पुन: बोले:-  प्रजापतिर्लोकपालो घाता ब्रह्मा च देवराट।
                                                                                 भगवान्छाश्रवतो नित्यं स नो रक्षतु सर्वत:।
                                                                                 योडसो प्रजापति: पूर्वे य: करे पदमसम्भव:।
                                                                                 पदभा वै सर्वलोकानां तन्नोडस्तु प्रजापते ।।
                       पश्चात् हाथ में जल लेकर छोड़ दे और कहे:- भगवान प्रजापति: प्रियताम्।
                         ब्राह्मण:-  ॐ प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा रूपाणि परिताबभूव।
                                          यत्कामास्ते जुहमस्तभो अस्तुवय घूं स्याम पतयो रयीणाम ।।
                                                 यजमान बोले:-   आयुष्मते स्वस्तिमते यजमानाय दाशुषे।
                                                                           श्रिये दताशिष: सन्तु ऋत्विग्भिर्वेद पारगे:।।
                                                                           या स्वस्तिर्ब्राह्मणो भूता या च देवे व्यवस्थिता।
                                                                           धर्मराजस्य या पत्नी स्वस्ति: शांति: सदा मम।।
                                                                           देवेन्द्रस्य यथा स्वस्तिर्यथा स्वस्तिरगुरोरगृहे।
                                                                           एकलिंगे यथा स्वस्ति तथा स्वस्ति सदा मम।।
                       ब्राह्मण:-   ॐ आयुषमेत स्वस्ति, ॐ आयुषमेत स्वस्ति, ॐ आयुषमेत स्वस्ति
                                         ॐ प्रति पन्थामपदनहि स्वस्तिगामनेहसम।
                                         येन विश्वा: परि दिषो वृणक्ति विदंते वसु।।नत्
                                         ॐ पुण्याहवाहन समृद्धिरस्तु।।   
                                                  यजमान बोले:-    अस्मिन् पुन्यहवाहन न्यूना तिरिक्तो योविधिरूपविष्ट ब्राह्मणानां वचनात श्री महागणपति प्रसादच्च परिपूर्णेडिस्तु।
                    दक्षिणा संकल्प:-   कृतस्य पुण्याहवाहनकर्मण: समृद्धयर्थ पुन्यहवाहकेभयो ब्राह्मणेभ्य इमां (जितनी दक्षिणा देनी हो) दक्षिणा विभज्य अहं दास्ये।
                     ब्राह्मण:-  ॐ स्वस्ति।
आगे पाटे या बर्तन में अभिमंत्रित प्रतिष्ठा युक्त गणेश जी , चाँदी आदि के सिक्के , अभिमंत्रित विष्णु लक्ष्मी प्रतिमा , महालक्ष्मी श्री यन्त्र , कुबेर यन्त्र आदि को व्यवस्थित रखकर मंत्रो के द्वारा गंधाक्षत , पुष्पादि से पूजा करे।
गणपति पूजनम :- ॐ गं गणपतये नम : । ॐ गजवक्त्र गणाध्यक्ष सर्व विघ्न विनाशन:। लम्बोदर त्रिनेत्राढ़य आगच्छ गणनायक ।। 1 ।। ॐ गणनंतवा गणपति घू हवामहे प्रियानांतवा प्रियपति घू हवामहे निधिनान्त्वा निधिपति घू हवामहे वासो मम । आहमजानि गर्भधभत्वाभजासि गर्भधम। ॐ भूर्भुव : स्व: ऋद्धि सिद्धि : लक्ष लाभ सहित गणपते इहागच्छ इहातिष्ठ । ॐ श्री ही  क्लीं ग्लौ गं गणपतये नम: गणपतिभावाहयामी स्थापयामि। ( दूध , दही , घी , शहद और शक्कर से स्नान कराकर , शुद्ध जल से स्नान कराकर कुमकुम , केशर या चन्दन का तिलक गंधाक्षत एवं पुष्प चढ़ावे तथा धूप दीप नैवेद्य फल तथा ताम्बुल चढ़ाकर प्रार्थना करे -
                            नमस्ते ब्रम्हरूपाय विष्णु रूपाय ते नम: ।
                            नमस्ते रूद्ररूपाय करिरूपाय ते नम: ।
                            विश्वरुपस्वरूपाय नमस्ते ब्रम्हचारिणी।
                            भक्तप्रियाय देवाय नमस्तुभ्यं विनायक।।
                           अनेन कृत पूजनेन सिद्धि बुद्धि सहित : श्री भगवान गणाधिपति : प्रियन्ताम्।
                            एक आचमनी जल निर्माल्य पात्र में छोड़ दे।
लक्ष्मी आह्वाहनम् :-  या श्री स्वयं सुकृतिनां भुवनेश्व लक्ष्मी : पापात्मनां कृतधियां ह्रदयेषु बुद्धि :। श्रृद्धा सतां कुलजन प्रभवस्य लज्जा , ता त्वां नता : स्म् परिपालय देवी विश्वम।  श्री आवाहयामि , ॐ श्रीं हीं क्लीं लक्ष्मिरागच्छागच्छ मम मन्दिरे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा।  ॐ श्रीं हीं क्लीं श्रीं सिद्ध लक्ष्मयै नम: । ॐ श्रीं हीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्री हीं श्रीं महालक्ष्मयै नम : ।
अर्थ: ध्यानम:-   या सा पद्नासनस्था विपुलकटितरि पदमपत्रायताक्षी गम्भीरावर्तनाभिस्तनभरनमिता                                  शुभ्रवस्त्रोतशिया
                         या लक्ष्मिर्दिव्यरुपेमणिगणखचितै: सापिता हेमकुम्भै:
                         स नित्यं पदमहस्ता मम वास्तु गृहे सर्वमांगल्ययुक्ता ।।
ॐ अम्बेडमभीकेभ्वालिके नमा:, क्लिं महालक्ष्मी, श्री महालक्ष्मी हीं महासरस्वती सहित महालक्ष्मी आवाहयामि स्थापयामि। आवाहनार्थे आसनार्थे कमलादि पुष्पाणि समर्पयामि। पूजयामि।                       विष्णु का ध्यान एवं पूजन करे:-   शान्ताकारं भुजग शयनं पदमनाभं सुरेशं, विश्वधर गगन सदृशं मेघवर्ण शुभाडगम। लक्ष्मीकान्त कमल नयन योगिभिर्ध्यान गम्य, वन्दे विष्णु भवभय हरण सर्वलोक नाथम ।।1।।
                                                  आवह्येत गरुडोपरि स्थित, रमार्ध देह सुरराजवन्दितम्। कंसंतक चक्रगदाब्ज हस्त भजामि देव वासुदेव सुनुम ।।2।।
 ॐ विष्णोरराटमसि विष्णो: शनप्रे स्थो विष्णो: स्युरसि विष्णोधरवोडसि। वैष्णवमसि विष्णवे त्वा ।। देवदेव जगन्नाथ भक्तानुग्रहकारम्। चतुर्भुज रमानाथ विष्णुभावाहयाम्यहम्। ॐ नारायणाय विदभहे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु: प्रचोदयात ।। वैकुण्ठलक्ष्मी सहित विष्णो आवाहयामि, स्थापयामि ।। पूजयामि ।। गंधाक्षत, फल-पुष्पर्ण समर्पयामि।
    शिव:-   ऐ हयेहि गौरीश पिनाकपाणे शशांक मौले वृषभाधिरूढ़। देवाधि देवेश महेश नित्यं ग्रहणा पूजा भगवान नमस्ते ।।1।। ॐ तत्पुरुषाय विदमहे महादेवाय धीमहि । तन्नो रूद्र : प्रचोदयात ।। 2 ।। ॐ नम: शम्भवाय च रुद्रकालशोपरि रूद्र आवाहयामि , स्थापयामि , पूजयामि।  गंधाक्षत , फल - पुष्पाणी समर्पयामि।
    सूर्य :-  आवाह्यन्तं द्धिभुजं दिनेश सप्ताश्ववाहनं धुमणि ग्रहेशम।
                सिंदूरवर्ण प्रतिमावभासं भजामि सूर्य कुलवृद्धिहेतो ।। 2 ।।
                ॐ आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्य च।
                हिरण्येन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।
नवग्रह स्मरण - पूजन :-  ॐ ब्रह्मभुरारि स्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशि भूमिसुतो बुधश्च गुरुश्च शुकः शनि राहु केतवः सर्वेग्रहा शान्तिकरा भवन्तु। (नौ सुपारी लेकर कुंकुमादि लिकर कर गंधाक्षत पुष्प फलादि समर्पित कर अष्ट-नवदलादि कोष्टकों में रखे। नवग्रहो को नमस्कार करे।)
नवग्रह सहित:-  ॐ  सूर्याय नमः, ॐ चन्द्राय नमः, ॐ भौमाय नमः, ॐ बुधाय नमः, ॐ गुरवे नमः, ॐ शुक्राय नमः, ॐ शनैश्चराय नमः, ॐ राहवे नमः,ॐ केतवे नमः आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि।
इन्द्र:-  ऐरावत समारुढो व्रज हस्तो महाबल:। शतयज्ञाधिपो देव स्तस्मै इन्द्रय ते नमः।। स्वर्ग लक्ष्मी सहित इन्द्रम आवाहयामि स्थापयामि, पूजयामि।
कुबेर पूजा:-  तिजोरी या गल्ले में स्वस्तिक करे। कुबेर यन्त्र की स्थापना करे। पान पर सुपारी, हल्दी गंठिया, धनिया, कमलगट्टा, सिक्का, रूपये आदि रखे फिर मंत्र बोले- ॐ आवाहयामि कुबेरत्व मिहायही कृपा करन। कोष वर्दक नित्यं त्वं परिरक्ष सुरेश्वर।।    कुबेरत्व धनाधीश गृह्यते कमलस्थितां। ता देवी प्रेषयाशु त्वं मद्गृहे ते नमोनमः।।  धनदाय नमस्तुभयं निधि पद्भाधिपय च। भगवंतु त्वत्प्रसदनमे धन धान्यादि सम्पदः।।    ॐ श्री वित्तेश्वराय, कुबेराय आवाहयामि स्थाप्यमि।।   इष्टदेवता कुल देवी देवताध्यान, आवाहयामि स्थापयामि पूजयामि च।
  फिर आचमनी से जल चढ़ावे:-  पादयोः पद्म समर्पयामि।  हस्यो अध्र्य समर्पयामि, मुखे आचभनीय समर्पयामि। सर्वागे स्नानीय समर्पयामिगङगा सरस्वती रेवा पयोष्णी नर्मदा जले:। स्नापितोडसी मायदेव तथा शांति कुरुष्व में।।  पंचामृत स्नानं समर्पयामि-पयोदधि घृत चैव मधु च शर्करायुतम्। पंचामृत मयनित स्नानार्थ प्रतिग्रहयतम।।  शुद्धिदक स्नानं समर्पयामि (इद मत्र वस्त्र, पुष्प, धुप, दीप, नैवेध दक्षिणा, समर्पयामि।
 अमृताभिषेक:-  यहां गणपति अथर्वशीर्ष, पुरुष सूक्त, श्री सूक्त आदि किसी भी मंत्रो से दुग्धधारा, पंचामृतदी से गणपति, सिक्को, विष्णुलक्ष्मी प्रतिमा, श्री यन्त्र पर अभिषेक करे।
  श्री सूक्त से अमृताभिषेक-पूजा सम्मुचय में न्यास क्रम:-    हिरण्यवणाम…....  मुघ्न।  ताम्र आवह…… नत्रमा।  अश्वपुर्णमी…… कर्णयो।  कंसोस्मितम्……नाशिकयों। चन्द्रा प्रभासाम……  नाभो। मनस: कामना  .... गुह्ये। कर्दमेन…… आपाने।  आये: सृजन्तु  ….... ऊर्वो। आद्र यः करणीय.......  जंवो। आद्र पुष्कर्णिम .......  जंघयो:। तोम आवह …… पड्यो। यः ष्षुचि…… सर्वगड़े।  1. आछान- ऑन हिरण्यवर्णा हरिणी सुवर्ण रजतरत्रजाम। चन्द्र हिरण्यमयी लक्ष्मी जातवेदो म आवह।। इस मंत्र से महालक्ष्मी जी का आह्वान करे।      2. आसान- तामडआवह जातवेदो लक्ष्मी मनपजमिनीम्।  यस्य हिरण्य विन्दे गामश्व पुरुषानहम।। इस मंत्र का आसान समर्पण करे। 3. पाधम- अश्व पूर्णा रथमध्यां हस्तिनद प्रमोदिनीम्। श्रिय देवीमुपह्वये श्री माँ देवीजुशतम।। इस मंत्र से पाध समर्पण करे। 4. अधर्य- ॐ कांसोस्मिता हिरण्य प्रकारमर्दा ज्वलन्तीं तृप्ता पात्यन्तिम। पधे स्थित पढ़वर्ण तमिहोपहवये श्रियम।। इस मंत्र से अध्र्य दे। 5. आचमन- ॐ चन्द्रा प्रभास यश सा ज्वलन्तीं श्रीय लोके देवजुष्टा मुदारम। तां पढ़िनिमि  शरनं प्रप्ध्ये अलक्ष्मीम्रे नशयतात्वावृणोमि।। इस मंत्र से आचमन करावे। अन्नतर पंचामृत से स्नान करावे। 6.  स्नान- ॐ आदित्यवर्णे तपसोधिजातो वनस्पतित्व वृक्षोडथ बिल्वः। तस्य फलानि तपसानुदन्तु मयन्त्रायतश्च बाह्या ड अलक्ष्मी।। इस मंत्र से स्नान करावे। 7.  वस्त्र- ॐ उपैतु मा देवसख: कीर्तिश्च मणिना सहु। प्रादुभूतो सुराष्ट्रेस्मिन कीर्ति वृद्धि ददातुमे।। इस मंत्र से वस्त्र चढ़ावे। 8.  उपवस्त्र- ॐ क्षुप्तिपसामला ज्येष्ठमलक्ष्मी नश्यभीहम। अभूतिमसमृद्धि च सर्व निर्णुद में गृहात।। इस मंत्र से कंचुकी(चोली, ब्लाउज) चढ़ावे। 9. गंध- ॐ गंध द्वारा दुराधर्षां नित्यपुष्टां कृषिनीम्। ईश्वरी सर्वभूतानां तामिहोपहाये क्ष्रीयम।। इस मंत्र से इत्र चन्दन चढ़ावे। 10.  सौभाग्यद्रव्य- ॐ मनसः काममाकुति वाचः सत्यमशीमहि। पशुना रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयता यशः।।इस मंत्र से सौभाग्यद्रव्य(सुहाग चाबड़ा) सिंदूरदी चढ़ावे। 11.  पुष्प- ॐ कर्धभेन प्रजा भुता मयि सम्भ्रम कर्धां। श्रिय वसायमे कुले मातरे पधमलिनीम्।। इस मंत्र से कमल पुष्प चढ़ावे। 12.  धूप- ॐ आप: स्त्रजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वसु में गृहे। निचदेवी मातर श्रिय वासमये कुले।। इस मंत्र से धुप बत्ती दिखावे। 13. दीप- ॐ आद्रा पुष्करिणी पुष्टि सुवर्ण हेममलिनीम्। सूर्य हिरण्यमयी लक्ष्मी जातवेदो ममावह।। इस मंत्र से दीपक दिखावे। 14. ॐ यःशचि प्रयतो भुत्वा जुहूयदाज्यमनवहम। सूक्त पंचदश्र्चच श्री कामः सतत जपेत।। इस मंत्र से नमस्कार करे। पश्चात् यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रिया दीषु। न्यून सम्पूर्णता याति सद्यो वन्द्र तमच्युतम्।। इस मंत्र को कहकर तीन बार ॐ विष्णवे नमः। ॐ विष्णवे नमः। ॐ विष्णवे नमः। कहे। पश्चात् लक्ष्मी सूक्त का पाठ करे।
  लक्ष्मी सूक्तम:-  सरसिज निलये सरोजहस्ते धवलतरा शुकगंधमाल्य शोभे। भगवती हरिवॉल्भभे मनोज्ञे त्रिभुवन भूतिकरी प्रसिद्ध मह्यम।। धनमग्निर्धनवयु धनसूर्यो धनवासु:। धनमिन्द्रो ब्रहस्पतिर्वरुन धनमष्विनो।। वैनतेय सोम पिबसोभ पिबतु वृत्रहा। सोम धनस्य सोमनो महय ददातु सोमिनः।। धुप अग्रयामी। दीप दर्शयामि। नैवेध निवेदयामि। नैवेध मध्ये पानीयम। ॐ प्रणय स्वाहा, ॐ पानाय स्वाहा, ॐ उदानाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा, ॐ साभानाय स्वाहा। दि आचमन, उतरपोशन, हस्तप्रक्षालन, मुख प्रक्षालन, आचमनीय च समर्पयामि। मुख वासार्थे ताम्बूलं समर्पयामि। पुंगीफल महदिव्य नागवल्ली दलेर्युतम्। एलाचूर्णादि संयुक्त ताम्बूल प्रतिगृह्यतां।। फलम समर्पयामि। दक्षिणा समर्पयामि (इस प्रकार नवग्रहादि का भी साथ में पूजन कर ले।)
  इसके पश्चात् महाकाली मसि पात्र (दवात) एवं कलम ले मौली बांधकर कुमकुम से पूजा करे:-  ॐ महाकल्ये नमः। ॐ कलिकेतवं जगन्मात मसिरूपेणावर्तते। उत्पन्न त्वं च लोकानां व्यव्हार प्रसीदये।। ॐ लेखनी निर्माता पूर्व ब्रह्मणा परमेष्ठिना। लोकाना च हितार्थाय, तस्माता पुज्यभयहम्।।
 बही रजिस्टर रोकड खाता पूजनम:- महासरस्वती स्वरूप बहियो में स्वस्तिक (साखिया) करे। सादा पान, गुड, धनिया, चावल, मौली आदि रखकर पूजन करे। ॐ वीणा पुस्तक धारिण्यै नमः। पंजीके सर्वलोकानां निधिरूपेण व्रतसे अतस्त्वां पूजयिष्यामि व्यवहारस्य सिध्ये।। बहियो में श्री गणेशाय नमः लिख कर दिनांक संग्रदी, मासादि लिखे।
ध्यान करे:- ॐ या कुन्देन्दुतुषार हार धवला, या शुभ्रवस्त्रावृता। या वीणा वरदण्ड मण्डितकरा या श्वेत पढासना। या ब्र्ह्माच्युतशंकर प्रभृतिभीदेवे: सदा वन्दिता। सा मा पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड़सा पहा।।
 तुला (तराजू) पूजन:- तराजू के मौली बांधकर, स्वस्तिक बनाकर पूजन करे। (यह उन व्यवसायियों के लिए है, जो तराजू का उपयोग करते है )
                     ॐ तुलाये नमः। ॐ नमस्ते सर्वदेवानां शक्तिस्तवेसत्य मश्रिता। साक्षी भुता जगद्धात्री निर्मिता                        विश्वयोनिना।।
  दीपमालिका (दीपक) पूजन- प्रथम दीप ज्योति करे:- किसी पात्र में ग्यारह, इक्कीस या उससे अधिक दीपक प्रज्ज्वलित करे, मंत्र बोले- त्वं ज्योति द्रीप ज्योति: स्थित नमः। महालक्ष्मी के समीप उक्त दीपो को रखकर ॐ दीपवत्यै नमः इस नाम मन्त्र से गन्धादि उपचारो द्वारा पूजन करे। दीपमालिकाओं का पूजन कर अपने आचार के अनुसार संतरा, ईख. पानी फल, धान का लावा आदि चढ़ावे। धान के लावे (खिल) गणेश, महालक्ष्मी तथा अन्य सभी देवी देवताओ को समर्पित करे। अंत में एक बड़ा दीपक लक्ष्मी जी के सम्मुख रखकर अन्य दीपो से घर को अलंकृत करे। बहार पटाखे छोड़े एवं लक्ष्मी जी के सम्मुख अंदर धूपिये पर अग्नि ज्योति प्रज्वलित करे। फिर सभी घर के सदस्य अधोलिखित ह्रदयस्पर्शी लक्ष्मी प्रार्थना जो रमलशास्त्री पं शंकरलाल जी (पद्मसागर) द्वारा लिखी गयी थी, सस्वर पाठ करे। हो सके तो इस लक्ष्मी स्तुति को कंठस्थ कर ले। नित्य पढ़ सकते है किन्तु दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजन के पश्चात् इसका अत्यंत भाव के अनुसार पाठ करना चाहिए। महालक्ष्मी जी का प्रसन्न होना सुनिश्चित है।

                                                    यहाँ तक चतुर्थ चरण समाप्त होता है।  
                     
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धन लक्ष्मी साधना एवं प्राप्ति के उपाय - पुस्तक (पेज न. 3)

                                             
                                                    पेज न. 3 

                                       लक्ष्मी का निवास कहाँ ?

                     जो मनुष्य धर्मशील, जितेंद्रिय, विनम्र पर दुःखकातर, भक्त,  कृतज्ञ और उदार है। सदाचारी, बड़े-बुढो कि सेवा में तत्पर, पुण्यात्मा, क्षमाशील एवं बुद्धिमान है। जो दानपुण्य, गुरुपूजा-देवपूजा नियमित करता है। त्याग, सत्य और शौच उनका भूषण है। जो स्त्रिया गुरु-भक्ति एवं पति परायणा है, जिनमे क्षमा, सत्य, इंद्रिय संयम, सरलता, घीरा, प्रियवादिनी, लावण्यमयी एवं सुशीला है। जो देवताओ एवं ब्राह्मणो में श्रद्धा रखती है और जो कलहहीन है। जिस घर में हमेशा यज्ञ, होम होता है। देवता गौ, और गुरु-ब्राह्मणो की पूजा होती है। वहाँ लक्ष्मी का निवास होता है। इसके अलावा- आंवला, फल, गोबर, शंख, शुक्लवस्त्र, चन्द्र, महेश्वरी, नारायण, वसुंधरा, उत्सव, मंदिर इन स्थानो में लक्ष्मी का स्थायी निवास है।
                   
                     लक्ष्मी का निवास नहीं-  जो मनुष्य पापकर्मरत, ऋणग्रस्त या अतिशय कंजूस, कटुभाषी, कलहकारी हो। जो व्यक्ति कन्या, आत्म और वेद विक्रय करता हो। जो माता-पिता, आर्या, गुरु-पत्नी, गुर-पुत्र, अनाथाभगिनी, कन्या और आश्रयरहित बांधवो का पोषण प्रदाता न हो और जिसके दांत गंदे, मलिनवस्त्र, सूखा मस्तिष्क तथा हास्य विकृत है। जो सायं शयन, पूर्ण नग्नशयन, दिन में स्त्री का संसर्ग बहुभक्षी, निष्ठर और झूठ बोलता हो। पराया अन्न, परायी नार, पराया वस्त्र और पराया वाहन पर बुरी नजर रखता हो। जो आलसी, क्रोधी, कृपण, व्यसनी, अपव्ययी, दुराचारी, अदुरदर्शी और अहंकारी हो। वहाँ लक्ष्मी नही रहती। माँ लक्ष्मी को चोरी, दुर्व्यसन, अपवित्रता और अशांति से घृणा है।


                                        लक्ष्मी को क्या है सर्वाधिक प्रिय ?
   
                       सौभाग्य एवं ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी को पुष्पो में सर्वाधिक प्रिय कमल का फूल है। कमल सौभाग्य का प्रतीक है और उस पर विराजमान देवी लक्ष्मी सौभाग्यदामिनी है अत: उनका सम्बन्ध कमल से अनिवार्य प्रतीत होता है। एक प्रचलित मान्यता के अनुसार लक्ष्मी को कमल से उत्पन्न माना जाता है, इसलिए इसे पदमजा कहा जाता है। सृष्टि को प्रारम्भ करने का श्रेय भी कमल को जाता है। काव्य तथा श्रृंगार में भी कमल को भरपूर प्रसिद्धि मिली है। समस्त जल पुष्पो में कमल ही श्रेष्ठ है। वेदो के अनुसार रक्तिम, श्वेत एवं नील कमल क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश के प्रतीक माने गए है। कमल भारतीय धर्म, दर्शन एवं संस्कृति का सन्देश वाहक है। संसार रूपी कीचड में उत्पन्न होते हुए भी कमलवत् (असंसारी) रहो यही कमल का सन्देश है। यह सात्विक पुष्प है लक्ष्मी को सर्वाधिक प्रिय है।


                                           लक्ष्मी के स्थायित्व के सात कल्प 

                         कहां है-  "पुरुष पुरातन की वधु क्यों न चंचला होय"। पुरुष पुरातन यानि विष्णु की पत्नी अर्थात लक्ष्मी चंचला है। या यह भी कि बूढ़े व्यक्ति की युवा पत्नी चंचल क्यों नही होगी। लक्ष्मी कभी भी एक स्थान पर टिक कर नही रहती। किन्तु लक्ष्मी की स्थायी प्राप्ति के इन सात अमूल्य अलौकिक कल्पो के सहारे हम लक्ष्मी की स्थायी कृपा प्राप्त कर सकते है। प्रत्येक सनातन धर्मी और जो लक्ष्मी के स्थायी निवास की कामना रखते है, उनके लिए लक्ष्मी के प्रिय सात कल्प आवश्यक है।

                                                   एकाक्षी नारियल 
                         
                           सामान्यत: नारियल की जय उतारने पर टहनी की ओर तीन काले बिंदु दिखाई पड़ते है। मान्यता है कि दो बिंदु नेत्रो के एवं एक बिंदु आँख का प्रतीक है। लक्ष्मी सूक्त (यज्ञवक्लयाचार्य) में कहा गया है-  संसार में सब कुछ सुलभ है, किन्तु एकाक्षी नारियल दुर्लभ है। संस्कृत में कहा है- दुर्लभ स्फटिकं हारं, दुर्लभ पारदंशिवं।
                          दुर्लभो वपु एकाक्षी नालिकेश्च दुर्लभम् अर्थात स्फटिक मणियो की माला, पारद शिवलिंग तथा एकाक्षी नारियल संसार में अत्यंत दुर्लभ है। विष्णु पुराण में तो कहा गया है कि जिसके घर में मन्त्र सिद्ध, प्राण प्रतिष्ठित एकाक्षी नारियल है, उसके घर में स्थायी रूप से अटूट लक्ष्मी का निवास रहता है। दीपावली पर जो व्यक्ति लक्ष्मी मूर्ति के समक्ष एकाक्षी नारियल रखकर उसकी पूजा करता है, उसके जीवन में धन-धान्य का अभाव रह ही नही सकता। इसे सुंघाने मात्र से स्त्री गर्भ के कष्ट से मुक्ति पा लेती है तथा सरलता से प्रसव होता है। जिस घर में यह नारियल होता है वहां तांत्रिक प्रभाव बेअसर होता है। एकाक्षी नारियल प्राण प्रतिष्ठित, लक्ष्मी मंत्रो से अभिमंत्रित तथा रूद्र मंत्रो से अभिषेशित होना चाहिए। यह कार्य प्रत्येक साधक के लिए असम्भव है अत: उसे अपने गुरु से ही यह विशिष्ठ नारियल प्राप्त करना चाहिये।

                                                   कनकधारा यन्त्र 

                         यह यन्त्र अत्यंत दुर्लभ, परन्तु लक्ष्मी प्राप्ति के लिए रामबाण है। यह यन्त्र दरिद्रतानाशक एवं ऐश्वर्य प्रदान करने वाला है। यह अदभुत यन्त्र तुरंत फलदायी है, परन्तु इसकी प्राण प्रतिष्ठा उतनी ही दुःसाध्य है अत: सिद्धहस्त गुरु द्वारा ही इसे प्राप्त करना चाहिए।
                         यदि आप बेरोजगार है या कई प्रकार के व्यवसाय कर हार चुके है अथवा गृहस्थ जीवन में आर्थिक अभाव है तो यह यन्त्र विशेष फलदायी है। शीघ्र धन प्राप्ति के लिए कनक धारा साधना विशेष प्रभावी है।
                         यदि कनकधारा यन्त्र के सामने बैठकर आदिशंकराचार्य कृत कनकधारा स्त्रोत का पाठ किया जाए जो तुरंत फलदायी होता है। मनुष्य अपने कर्ज से छुटकारा पता है। अचानक धन का आगमन होने लगता है। कनकधारा यंत्र एवं कनकधारा स्त्रोत अत्यंत प्रभावी है और स्वानुभूत है।

                                                        श्री यन्त्र 
                             
                              श्री यन्त्र सम्बधित आख्यान है कि एक बार लक्ष्मी अप्रसन्न होकर बैकुण्ड धाम चली गयी। इससे पृथ्वी पर हाहाकार व्याप्त हो गया। चारो ओर के लोग धराधाम पर दीन-हीन होकर इधर-उधर घूमने लगे। तब ब्राह्मणो में श्रेष्ठ वशिष्ठ ने बैकुण्ठ में जाकर लक्ष्मी से पृथ्वी पर आने की प्रार्थना कि। माँ लक्ष्मी किसी भी स्थिति में भूतल पर आने को तैयार नही हुई। तब वशिष्ठ ने अनंत श्री विष्णु की आराधना कि। श्री विष्णु प्रसन्न हुए एवं वशिष्ठ को साथ लेकर लक्ष्मी के पास गए और उन्हें मनाने लगे किन्तु लक्ष्मी ने द्रढ़ता से कहा मै किसी भी स्थिति में पृथ्वी पर नही जाऊंगी। खिन्नमना वशिष्ठ खाली हाथ पुन: पृथ्वीलोक लौट आये एवं लक्ष्मी के निर्णय से सबको अवगत करा दिया। सभी किंकर्तव्यमूढ़ थे कि अब क्या किया जाये ? तब देवताओ के गुरु बृहस्पति ने कहा कि अब तो मात्र एक ही उपाय है- श्री यन्त्र कि साधना। यदि श्री यन्त्र को स्थापित कर प्राण प्रतिष्ठा एवं पूजा कि जाए तो लक्ष्मी को अवश्य आना पड़ेगा। ऋषि महर्षियो ने गुरु बृहस्पति के निर्देशानुसार श्री यन्त्र का निर्माण कर एवं उसकी मंत्रादि से प्राण प्रतिष्ठा कर दीपावली से दो दिन पूर्व यानि धनतेरस को स्थापित कर शोडषोपचार से विधिवत पूजन किया। पूजा समाप्त होते ही लक्ष्मी वहां उपस्थित हो गयी और कहा श्री यन्त्र ही तो मेरा आधार है और इसी कारण मुझे यहाँ आना पड़ा। श्री यन्त्र में लक्ष्मी की आत्मा वास करती है, इसी कारण से इसे यन्त्र राज कहते है। दीपावली की महानिशा रात्रि को लक्ष्मी पूजन के समय इसकी पूजा-अर्चना तथा "ॐ श्रीं हीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं हीं श्रीं ॐ महालक्ष्मै नम:" मंत्र की 11 माला तथा श्री सूक्त का पाठ अवश्य करना चाहिए।

                                    दक्षिणावर्ती शंख 
                             
                                यह शंख समुंद्र में पैदा होता है. जहा लक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ।
                          इस दृष्टि से एक ही पिता की संतान होने से यह शंख लक्ष्मी का लघु भ्राता कहलाता है। विश्व के समस्त जल जन्तुओ में यही एक मात्र शंख है, जो कुरूप होने पर भी सर्वाधिक पूज्य और मान्य है।
                               जो व्यक्ति इस शंख को प्राण प्रतिष्ठित युक्त अभिमंत्रित कर पूजा घर में स्थापित करता है,उस घर में लक्ष्मी का स्थायी निवास होता है सामन्यत सभी शंख बायीं तरफ से खुले रहते है, लेकिन बहुत कम शंख ऐसे भी होते है जो दायी ओर खुले हो। दायी ओर से खुले शंख की ही महता है। इसे ही दक्षिणाव्रती शंख भी कहते है।

                                         कुबेर कलश एवं श्रीफल
                 
                          कुबेर धन सम्पत्ति के अधिपति है और देवताओ के कोषाधिपति है उनकी साधना देवता भी करते है। कुबेर में लक्ष्मी का वास है और सुख समृद्धि एव सम्पदा के प्रतीक है। अत: लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए कुबेर कलश एवं श्री फल ही विशिष्ठ कल्प है। आर्थिक उन्नति, व्यापारिक सफलता एवं स्थायी धन सम्पति प्राप्ति के लिए धन त्रयोदशी की रात्रि अथवा दीपावली रात्रि में अभिमंत्रित कुबेर कलश एवं श्री फल को स्थापित करना विशेष शुभ फलदायी है। जिससे आपके धन सम्पति का खजाना हमेशा कुबेर के खजाने की तरह भरा रहेगा। लक्ष्मी का स्थायी निवास रहेगा। वास्तव में वह घर सौभाग्यशाली है जहाँ कुबेर का स्थायी निवास, अर्थात धन की कमी नहीं है।


                                                  लक्ष्मी चरण पादुका 
                     
                            माँ लक्ष्मी की कृपा दृष्टि हेतु लक्ष्मी चरण पादुका एक सुनहरा कल्प है। जहाँ जहाँ लक्ष्मी के चरण होंगे वहाँ सुख, समृद्धि का निवास होगा। लक्ष्मी के स्थायी निवास के लिए लक्ष्मी चरण पादुका का विशेष महत्व है। बशर्ते वह अभिमंत्रित, सिद्ध एवं मन्त्रचेतनय युक्त हो। प्राण प्रतिष्ठा के बिना चरण पादुका का कोई महत्व नही। अत: दीपावली की शुभ रात्रि पर विशेष रूप से अभिमंत्रित लक्ष्मी स्वरुप चरण पादुका को अपनी तिजोरी, पर्स या पूजन कक्ष में स्थापित कर लक्ष्मी के स्थायी वास का संकल्प करे।

       
                                                   श्वेतार्क गणपति 
            
                  सफ़ेद आकड़े का पौधा दुर्लभ है। यह लाखो करोडो पौधो में से एक आध पौधा सफ़ेद रंग का होता है। इसी श्वेत आर्क की जड़ को सावधानी से निकालकर, ऊपरी परत को कई दिन तक पानी में भिगोए रखने के बाद उस पर गणेश जी का उभरा चित्र दिखाई देगा। अथवा सफ़ेद आर्क से बने गणपति की महिमा भी अपरम्पार है। जिस परिवार में श्वेतार्क गणपति की नित्य पूजा होती है, उसके यहाँ जीवन भर धन-धान्य एवं समृद्धि का अटूट भंडार रहता है यह स्वानुभुत है।
                               सच तो यह है कि धन बिना जीवन व्यर्थ है। और धन की देवी लक्ष्मी है। वह जिस जिस कल्प में विधमान है, प्रत्येक गृहस्थ का उस कल्प को पाने और साधना करने की आवश्यकता है। कहा भी है- धनात्  धर्म ततो जय: यानि धन से धर्म हो सकता है और धन से सांसारिक भवबंधन से विजय निश्चित है। इस सन्दर्भ में यह जानना-समजना आवश्यक है कि लक्ष्मी कहां रहती है और कहां नहीं रह पाती।

                                                यहाँ तक तृतीय चरण समाप्त होता है।           

             

                             


                 

   
                       

शनिवार, 26 अक्टूबर 2013

धन लक्ष्मी साधना एवं प्राप्ति के उपाय - पुस्तक (पेज न. 2)

                             
        
                                            पेज न. 2                
             
                             पंच दिवसीय उत्सव चक्र 

               कार्तिक मास की अमावस्या, जिस दिन चंद्रमा के प्रकाश का पूर्णरूपेण लोप तथा अंधकार का साम्राज्य रहता है दीपावली पर्व मनाया जाता है, परन्तु उसके पूर्व एवं पश्चात भी दो दो महत्वपूर्ण पर्व भी मनाये जाते है। इस प्रकार सब पर्व मिलकर पंच दिवसीय उत्सव चक्र का रूप धारण करते है।
             दीपावली के पूर्व त्रयोदशी महर्षि धनवंतरी की उपासना होती है। इसे धन तेरस कहते है। कहा जाता है कि पंचम वेद के रूप में जाने जाने वाले 'आयुर्वेद के आदिदेव भगवान धन्वन्तरि भी क्षीर सागर के मंथन से उत्पन्न चौदह रत्नो में से एक थे। इसी पर्व पर मृत्यु के देवता यमराज को भी याद किया जाता है।संध्या को उनकी स्मृति में घर के मुख्य द्वार पर दीपक रखा जाता है। धन सम्पति की प्राप्ति हेतु कुबेर के देवता पूजा की जाती है तथा पूजा स्थल पर दीपदान किया जाता है। इस दिन अपने सामर्थ्य अनुसार किसी भी रूप से चाँदी एवं अन्य धातु खरीदना भी अति शुभ है।
    
धन्वंतरि कथा:- धनतेरस से जुडी कथा के अनुसार पुराने जमाने में एक राजा थे हिम। उनके यहाँ पुत्र हुआ।                  कुंडली बनाने पर ज्योतिषियों ने कहा कि राजकुमार अपनी शादी के चौथे दिन सांप काटने से मर जायेगा। इस पर राजा चिन्तित रहने लगे। जब राजकुमार कि उम्र 16 वर्ष कि हुई, तो उसकी शादी एक सुन्दर, सुशील, समझदार राजकुमारी से कर दी गयी। राजकुमारी माँ लक्ष्मी कि बड़ी भक्त थी। राजकुमारी को भी अपने पति पर आने वाली विपत्ति का पता लग चुका था। वह काफी द्रढ़ इच्छाशक्ति कि धनी थी। उसने चौथे दिन का इंतजार पूरी तैयारी के साथ किया। जिस रास्ते से सांप आने की आशंका थी, वहा सोने-चाँदी के सिक्के, हीरे-जवाहरात आदि बिछे दिए। पूरे घर को रोशनी से जगमगा दिया गया। कोई भी कोना ऐसा नही था, जहा अँधेरा दिख रहा हो। इतना ही नही पति को जगाये रखने के लिए पहले कहानी सुनाई और फिर लक्ष्मी स्तवन भजन करने लगी।
                         इस दौरान जब मृत्यु के देवता यमराज ने सांप का रूप धारण कर कमरे में प्रवेश करने की कोशिश की, तो रोशनी कि वजह से उनकी आँखे चुंधिया गयी। इस कारण सांप दूसरा रास्ता खोजने लगा और रेंगते हुए उस जगह पहुच गया, जहा सोने-चाँदी के सिक्के रखे हुए थे। डसने का मौका न मिलता देख, विषधर भी वही कुंडली लगाकर बैठ गया, राजकुमारी के मधुर भजन स्तवन सुनने लगा। इसी बीच सुबह हो गयी, टाइम ख़त्म हो चुका था। यम देवता वापस जा चुके थे। इस तरह राजकुमारी ने अपने पति को मौत के पंजे में पहुचने से पहले ही छुड़ा लिया। यह घटना जिस दिन घटी, वह धनतेरस का दिन था। इस दिन को 'यमदीप दान' भी कहते है। यमराज की अराधना, सोने-चाँदी के सिक्को (कुबेर) कि पूजा एवं मुख्यद्वार एवं आँगन में दीप माला को इसी कथा के सन्दर्भ में देखा जाता है।                                                                                                             कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी यानि नरक चतुर्दशी धन तेरस के दूसरे दिन मनाया जाता है। मन जाता है कि इस दिन जो व्यक्ति दीपदान करता है उसे नरक में नही जाना पड़ता। इस दिन घर का कूड़ा-करकट साफ करके संध्या को दीपक जलाते है, जिससे एक दीपक यमराज के लिए भी होता है। इस दिन भगवान कृष्ण ने नरकासुर नामक अत्याचारी शासक का वध करके संसार को भय मुक्त किया था, इस विजय की स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है ऐसी मान्यता है। इसे छोटी दीपावली भी कहते है। इन तीन दिनों धनतेरस, नरक चतुर्दशी तथा दीपावली के दिन दीपक जलाने का कारण यह भी बताया गया है  कि भगवान के वामन अवतार ने राजा बली कि पृथ्वी को नपा था, उन्होंने तीन पगो में पृथ्वी, पाताल तथा बली के शरीर को भी नाप लिया था। छोटी दीपावली को ग्यारह या इक्कीस अथवा इकत्तीस दीपक जलाने का विधान है। इन दीपको में पांच या सात दीपक घी के जलाने चाहिए।                                                                                                                                     कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा की जाती है। द्वापर में जब ब्रजवासी देवराज इंद्र के भय से उनकी छप्पन भोगो से पूजा किया करते थे। उसी समय श्री कृष्ण ने इंद्रा पूजा का निषेध करके समस्त गोकुल वासियो को गौ व गोवर्धन पूजा का महत्व बताया। गाय से दुध, मूत्र एवं गोबर प्राप्त होता है जो भूमि उपाजाऊ होने में सहायक है। गोवर्धन पर्वत पर जड़ी बूटियों का खजाना है। पर्वत पर उगी हुई घास पशुओ के लिए भोजन है। गोकुलवासियों गोवर्धन पुजा कि एवं इंद्रा के भोग को कृष्णा ने गोवर्धन रूप में प्रकट होकर ग्रहण कर लिया। इस घटना से क्रुद्ध देवराज इंद्रा ने ब्रज भूमि को डूबने के लिए मूसलाधार वृष्टि कर दी। श्री कृष्ण ने अपनी लीला को दिखाते हुए गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठिका अंगुली पर,उठा लिया और अतिवृष्टि से होने वाली धन-जन-गौधन कि हानि से सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र कि रक्षा की। इंद्रा का मोह भंग हो गया उन्होंने श्री कृष्णा की शरण ली और सम्पूर्ण गोकुल ग्राम में उत्सव मनाया गया। प्रति वर्ष गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव (सामूहिक भोजन) मनाने की आज्ञा दी। तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाता है।
           कार्तिक शुक्ल पक्ष कि दितिया को भाई दूज मनायी जाती है। इसे यम दितीया भी कहते है। यम सूर्य के पुत्र है जो पत्नी संज्ञा से उत्पन्न है। प्राचीन मान्यता है कि इस दिन यम की बहन यमी ने अपने भाई को भोजन का निमंत्रण दिया था। यम व्यस्त होते हुए भी बहन के निमंत्रण पर गये थे। हिन्दू समाज में भाई-बहन के प्रेम के प्रतिक के रूप में दो त्यौहार रक्षा बंधन तथा भाई दूज आते है। इन दोनों दिनों में बहिने अपने भाई की लम्बी उम्र की कामना करती है तथा उन्हें तिलक लगाती है। भाई यथा योग्य बहन को उपहार भेंट करता है। इस पर्व पर यम एवं यमुना नदी जो कि भाई बहन के रूप में माने गए है, उनकी पुजा का विधान है।

भाई दूज की कथा:- पौराणिक कथा के अनुसार यम का अपनी जुड़वा बहिन यमुना से बहुत प्रेम                                 था। इनकी माता अपने पति सूर्य के असहनीय ताप के डर से उत्तरी ध्रुव में रहने लगी। माता के चले जाने के कारण यम यमलोक चले गए तथा यमुना मथुरा के पास रहने लगी। वर्षो वियोग के बाद
इसी दिन भाई बहिन यमुना के घर आपस में मिले यमुना अति प्रसन्न हुई, भाई (यम) को तिलक लगाकर भोजन करवाया तभी से यह पर्व यम दितीय अथवा भाई दूज के नाम से मनाया जाने लगा।
                इसके उपरांत दीपावली पर्व पञ्च दिवसीय उल्लास मई वातावरण में समाप्त हो जाता है। दीपावली पर्व जहा प्रकाश का पर्व है, वही यह बहुदेवो कि आराधना का भी संगम है।  
    
लक्ष्मी पूजन कथा :- पद्मवसिनी महालक्ष्मी के पूजन के सन्दर्भ में कई कथाएँ प्रचिलित है।  पुराणो में एक कथा के अनुसार प्रभाद ग्रस्त , द्वंद कि राज लक्ष्मी महर्षि दुर्वासा के श्राप से समुद्र मंथन में प्रविष्ट हो गयी तब देवताओ ने प्रार्थना की कि वे समुद्र से बहार प्रकट हो जाये। इस क्रम में समुद्र मंथन से इनके प्रकट होने का प्रसंग सर्वविदित है। खैर जब महालक्ष्मी प्रगट हुई तो देवताओ , ऋषि मुनियो ने मंत्रोच्चारण के साथ इनका अभिषेक किया तब इनके कमल सदृश्य मनोहर नेत्रो के अवलोकन मात्र से सम्पूर्ण विश्व सुख शांति तथा धन समृद्धि से संपन्न हो गया। इंद्रा देव ने इनकी दिव्य स्तुति कि जिनमें कहा गया कि महालक्ष्मी कि दृष्टि मात्र से ही निर्गुण मनुष्य में विद्या , विनय , शील , गांभीर्य , औदार्य आदि सभी गुण प्राप्त हो जाते है।  वह व्यक्ति समृद्धि संपन्न होकर आदर व् श्रद्धा का पात्र बन जाता है। विश्व भर में इस आदिशक्ति , भगवान विष्णु कि सहचरी , देवी कमला कि उपासना जगदाघर शक्ति , आगम निगम सभी के सामान रूप में प्रचिलित है।  इनकी गणना जातीय ग्रंथो में दस महाविद्या के अंतर्गत कमलात्मिक नाम से हुई है।  
          एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर विनम्र शब्दो में भगवान श्री कृष्ण से प्रार्थना कि हे भगवान ! आप दीन रक्षक , कृपालु , भक्तवत्सल है।  ऐसा कोई सरल उपाय बताइये , जिससे हमारा नष्ट हुआ राज्य पुन: प्राप्त हो तथा राज्य लक्ष्मी की कृपा हो। 
तब श्री कृष्ण बोले , हे राजन जब दैत्य राजा बलि राज्य किया करते थे उस समय उनके राज्य में सम्पूर्ण प्रजा  प्रसन्न व् सुखी थी , धन धान्य कि प्रचुरता थी अभाव व् कष्ट का कही नाम निशान तक नहीं था। बलि  मेरा भी प्रिय भक्त था।  उसने एक बार एक सौ अश्वमेघ यज्ञ करने कि प्रतिज्ञा की। उनमे से जब 99 यज्ञ पूर्ण  हो चुके और मात्र एक यज्ञ ही शेष था , तब इंद्र को अपना सिंहासन छिन जाने का भय हुआ। कारण कि 100 अश्वमेघ करने वाला इंद्रासन का अधिकारी होता है।  इस भय के कारण व् रुद्रादि देवताओ के पास गया , परन्तु उसका वे कुछ भी उपाय नहीं कर सके। तब समस्त देवता इंद्र को साथ लेकर क्षीर सागर में शेषशय्या पर विराजमान श्री विष्णु भगवान के यहाँ गए।  इंद्र ने पुरुष सुक्तादि वेदमंत्रो से भगवान कि स्तुति कर अपना दुःख भगवान विष्णु को सुनाया। तब विष्णु बोले कि इंद्र , तुम घबराओ मत , तुम्हारे इस भय का मै अंत कर दूंगा।  यह आश्वासन देकर उन्हें पुन: इंद्रलोक भेज दिया। इसके बाद भगवान ने वामन का रूप धारण कर सौवा यज्ञ कर रहे राजा बलि के पास गए और राजा से मात्र तीन पैर पृथ्वी दान में मांगी। दान का संकल्प हाथ में लेकर भगवान ने एक पैर से साडी पृथ्वी नाप ली। दूसरे पैर से अंतरिक्ष और तीसरा चरण रखने कि जगह न होने पर राजा बलि ने अपना सिर आगे रख दिया। यह देखकर भगवान विष्णु अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने राजा बलि से वर मांगने को कहा।  
              तब वर रूप में राजा बलि ने कहा कि कार्तिक कृष्ण पक्ष कि त्रयोदशी , चतुर्दशी एव अमावस्या को पृथ्वी पर मेरा शासन रहे। इन तीन दिनों में प्रजा दीपदान , दीप आदि करके उत्सव मनाये तथा महालक्ष्मी जी का पूजन हो और लक्ष्मी का उस घर में निवास हो। 
           इस प्रकार वर मांगने पर भगवान विष्णु ने कहा कि हे भगवान विष्णु ने कहा कि हे राजन यह वर हमने तुम्हे दिया। इस दिन लक्ष्मीपूजन , दीप पूजन से घर में लक्ष्मी का निवास होगा और अंत में वह मेरे धाम को आश्रय पायेगा। यह कहकर भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताल लोक का राज्य देकर इंद्र का भय दूर किया। ऐसा माना जाता है कि तभी से दीपावली का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। यह महालक्ष्मी पूजन से सम्बंधित मुख्य कथा है। 
                पौराणिक पांडुलिपियों में लक्ष्मी पूजन कथा का इस प्रकार उल्लेख मिलाता है। सत्य शर्मा नाम के ब्राम्हण अत्यंत निर्धन थे। पत्नी और संतानो के भरण पोषण में असमर्थ एक दिन वह इस विपदा से  चरम स्थिति में त्रस्त होकर आत्महत्या के लिए घर से जंगल कि निकल पड़े।  एक निश्चय कि ऐसे संतप्त - अशक्त जीवन से क्या लाभ ? क्यों न इस जीवन का अंत कर दिया जाये।  तभी मार्ग में उनके सामने नारद मुनि आ गये। उन्होंने पूछा - क्या हुआ ब्राम्हण ? आप इतने उद्विग्न और अशांत क्यों है ? सत्य शर्मा ने सत्य बता दिया कि मेरी दृष्टि के सामने परिवार भूखा मरे , यह देखा नहीं जाता , तब नारदमुनि ने उन्हें ब्रम्हा जी कि तपस्या के लिए प्रेरित किया। तपस्या प्रारम्भ हुई।  एक दिन ब्रम्हा जी प्रगट हुए , पूछा - क्या चाहिए ? वरदान मांगो। तब सत्य शर्मा ने कहा धन चाहिए , वह भी इतना कि उसकी पीढ़िया सुख सम्पन्नता से जीवन बिता सके।  ब्रम्हा जी ने कहा - इसके लिए तो तुम्हे भगवान विष्णु कि तपस्या करनी होगी। ब्राम्हण ने विष्णु को प्रसन्न करने कि तपस्या प्रारम्भ कर दी तो वे भी प्रकट हो गए।  उन्होंने धन कि प्राप्ति के लिए सत्य शर्मा को शिव शंकर कि तपस्या करने को कहा।  
        सत्य शर्मा समझ नहीं पाये कि आखिर माजरा क्या है ? ब्रम्हा और विष्णु ने उन्हें क्यों टरका दिया ? मनोवांछित वरदान क्यों नहीं दिया ? अंतत : उन्होंने शिवजी कि तपस्या कर प्राणांत के निश्चय कर डाला।  घोर तपस्या से शिव प्रसन्न हुए कहा - ब्राम्हण वर मांगो , मैं प्रसन्न हुआ। ब्राम्हण ने धन प्राप्ति का वरदान माँगा। शिव ने कहा - हे ब्राम्हण ! तुम उज्जैन नगरी चले जाओ , वहां तुम्हारा मनोरथ सफल होगा। सत्य शर्मा सपरिवार उज्जैन नगरी चले गए। एक दिन दोपहर का समय। सत्य शर्मा कि पत्नी घर कि छत पर गोबर के उपले सुखा रही थी , तभी आकाश में उडती एक चील के मुँह से एक चमचमाता सफ़ेद मोतियो का हार वह गिर पड़ा।  सत्य शर्मा कि पत्नी ने उसे उठाया , देखा यह मुल्य वान हार वहा कि महारानी का था।  राजा ने शहर में घोषणा करवा दी थी कि इस हार को ढूंढ कर लाएगा उसे मुँह माँगा ईनाम दिया जायेगा। ब्राम्हण कि पत्नी ने पति को हार देते हुए कहा कि इसे वह राजा को लौटा दे , क्या पता शायद अपना भाग्य बदल जाए। सत्य शर्मा ने जब राजा को यह हार लौटाया तो राजा प्रसन्न हो गए।  उन्होंने कहा - बोलो ब्राम्हण क्या मंगाते हो ?
        सत्य शर्मा ने थोडा सोचकर कहा - महाराज आने वाली कार्तिक अमावस्या कि रात केवल उसके घर में दीपक जले और शेष पूरी उज्जयनी में अँधेरा रहे। राजा ने कहा - ठीक है ब्राम्हण , अगर तुम्हे इसी में प्रसन्नता है , और कुछ मिलता है तो ऐसा ही होगा। 
         समयांतराल के बाद कर्तिक अमावस्या कि रात भी आ गयी। उस रात पूरी उज्जयनी नगरी अंधकार में डूबी रही केवल सत्य शर्मा के घर में ही कुछ दीपक जल रहे थे।  उसकी पत्नी ने घर को साफ़ सुथरा कर रखा था। अपने वहाँ पर आरूढ़ लक्ष्मी को उज्ज्यनि नगरी में घुप्प अँधेरा देखकर घोर आश्चर्य हुआ। वह सिर्फ सत्य शर्मा के घर प्रकाश देखकर धरती पर उतरी और दरवाजा खटखटाया।  भीतर से आवाज आयी - कौन है , लक्ष्मी ने जवाब दिया - में धन कि देवी लक्ष्मी हु , भीतर से पूछा कि आप यहाँ क्या करने आयी है , किन्ही संपन्न सेठो के यहाँ जाइये।  यहाँ तो गरीबो और निर्धन ब्राम्हण का घर है। 
       लक्ष्मी ने कहा - नहीं उसे किसी के घर नहीं जाना है।  वह इसी घर में आएगी , सत्य शर्मा ने कहा - आप तो चंचला है , आज यहाँ तो कल वहां , फिर मेरे यहाँ आने से क्या लाभ ? लक्ष्मी ने कहा - नहीं ब्राम्हण में आपके घर में स्थायी रूप से रहूंगी , आप विधिपूर्वक मेरी पूजा अर्चना करो। 
        सत्य शर्मा कि धर्म पत्नी ने घर का दरवाजा खोला तो महालक्ष्मी भीतर प्रविष्ट हो गयी।  उन्होंने मंत्रोच्चारण के साथ विधिवत पूजा कि और उनके चरण स्पर्श कर कृपा करने कि प्रार्थना की।  इसी प्रसंग से लक्ष्मी पूजन का प्रारम्भ मन जाता है। 

                                      यहाँ तक दितीय चरण समाप्त होता है।

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2013

धन लक्ष्मी साधना एवं प्राप्ति के उपाय - पुस्तक

   
                                                 

                                                 पेज न.1 

प्रिय मित्रो,
                 आज से पण्डित एन. एम. श्रीमाली जी द्वारा रचित पुस्तक "लक्ष्मी साधना एवं प्राप्ति के उपाय" का हमारे द्वारा प्रकाशन किया जा रहा है। आज से प्रत्येक दिन हमारे द्वारा इस पुस्तक के कुछ अंश आप सभी मित्रो तक पहुचाये जायेंगे। आशा है की यह पुस्तक आप सभी के लिए लाभप्रद एवं उपयोगी सिद्ध होगी।पंडित जी का प्रयास रहा है, इस पुस्तक के माध्यम से आप सभी को अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त हो। आज हम इस पुस्तक का प्रथम अंक प्रकाशित कर रहे है। 

                                        ।। श्री   गणेशाय   नमः ।।
                                                 
                                                दीपावली पर्व 
                          
                   श्री महालक्ष्मी साधना-पूजा 

                          (यन्त्र-मंत्र प्रयोग पद्धति)

                                   महालक्ष्मी प्राप्ति के अचूक उपाय

साधना एक दुरूह कार्य है। यह श्रद्धा एवं संपूर्ण विश्वास के साथ की जाती है तभी फलीभूत होती है। कभी कभी साधक को साधना का फल नही मिलता है तथापि उसे इसे करते रहना चाहिए। जो साधनाएँ इस पुस्तक में उदधृत है, वे पुराने ग्रंथो से ली गयी है अतः प्रामाणित है साधनाओं की सफलता या असफलता के मूल में साधक का सामर्थ्य एवं श्रद्धा शक्ति मुख्य रूप से प्रभावक रहती है। अतः साधना की विफलता के लिए प्रकाशक लेखक या संपादक उत्तरदायी नहीं है।  
पुस्तक के संबंध में वाद विवाद की स्थिति में जोधपुर (राज.) न्यायालय ही मान्य होगा।

                                                अनुक्रमाणिका
1. धन कि देवी लक्ष्मी
2. दीपावली पर्व से संबंधित संदर्भ एवं आख्यान
3. पंच दिवसीय उत्सव चक्र
4. धन्नवतरी कथा
5. लक्ष्मी पूजन कथा
6. लक्ष्मी का निवास कहा ?
7. लक्ष्मी का निवास कहा नही ?
8. लक्ष्मी को क्या है सर्वाधिक प्रिय
9. लक्ष्मी स्थायित्व के सात कल्प
     एकाक्षी नारियल
     कनकधारा यन्त्र
     श्री-यन्त्र
     दक्षिणावृति शंख
     कुबेर कलश एवं श्रीफल
     लक्ष्मी चरण पादुका
     श्वेतार्क गणपति
10. दीपावली पंच महापर्वीय साधनाये
     धन त्रयोदशी साधना
     रूप चतुदर्शी साधना
     विष्णु-महालक्ष्मी साधना एवं पूजा
     सांगपाग महालक्ष्मी पूजनम्
11. महालक्ष्मी स्तुति
12. लक्ष्मी प्राप्ति के विविध प्रयोग
13. श्री-यन्त्र
14. श्री महालक्ष्मी यन्त्र
15. कुबेर यन्त्र-मंत्र
16. कनकधारा यन्त्र-मंत्र साधना
17. लक्ष्मी प्राप्ति के कुछ सिद्ध यन्त्र
18. धन प्राप्ति कारक यन्त्र
19. समृद्धिदायक बीसा यन्त्र
20. श्री लक्ष्मी बीसा यन्त्र
21. ऋद्धि सिद्धि प्राप्ति यन्त्र
22. श्री महालक्ष्मी यन्त्र एवं उपासना
23. लक्ष्मी पिरामिड
24. लक्ष्मी प्राप्ति के कुछ सिद्ध मंत्र
25. लक्ष्मी कमला मंत्र
26. महालक्ष्मी मंत्र
27. श्री मंजु घोष प्रयोग
28. दशाक्षर लक्ष्मी मंत्र
29. कनक दक्षिणी साधना
30. स्फटिक शिवलिंग प्रयोग
31. दक्षिणावृति शंख कल्प
32. कमलगट्टा माला प्रयोग
33. कांतियुक्त शांतिग्राम साधना
34. गौरी शंकर रुद्राक्ष
35. स्फटिक मणिमाला प्रयोग
36. शाबर मंत्रो से लक्ष्मी प्राप्ति
37. बिक्री बढ़ाने का मंत्र
38. व्यापार वृद्धि मंत्र
39. धन प्राप्ति मंत्र
40. मनोकामना सिद्धि मंत्र
41. व्यापार बाधा निवारक मंत्र
42. सम्मोहन मंत्र
43. शत्रु सम्मन मंत्र
44. अनवरत धन प्राप्ति मंत्र
45. कामना प्राप्ति मंत्र
46. विवाह बाधा निवारक मंत्र
47. बाधा निवारक मंत्र
48. दीपावली पर लक्ष्मी प्राप्ति के टोटके
49. लक्ष्मी प्राप्ति हेतु यह भी कीजिये
50. ज्योतिष शास्त्र में श्री धनदात्री श्रीविष्णु को प्रसन्न करने के उपाय
51. लक्ष्मी प्राप्ति के सामान्य सूत्र
52. फेंगशुई से सौभाग्यशाली बनने के सरल उपाय


                                         धन की देवी लक्ष्मी 
           
                      लक्ष्मी को धन का प्रतीक माना गया है। धन की महिमा अपरम्पार है। समस्त आश्रमो की सम्पूर्ण संतुष्टि का आधार धन है। बिना पैसे उच्च विधाध्ययन नही, बिना द्रव्य के गृहस्थाश्रम भार स्वरुप है। जिसके घर में दो जून की रोटी नसीब नही होती है उसके लिए दान की बात दूभर है। वानप्रस्थ एवं सन्यास अवस्था में भी परोपकारार्थ धन की आवश्यकता होती है। दुनिया में सभी लेन देन धन यानि मुद्रा के माध्यम से होता है। हमारी क्रयशक्ति का आधार भी धन ही होता है सोना-चाँदी, हीरे-मोती भी धन ही है, ये सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ जुटाने के माध्यम मात्र है। रोटी-कपडा-मकान की मूलभूत जरूरत से लेकर अंतहीन चाहत भी धन यानि लक्ष्मी पर टिकी होती है। सभी प्रकार के विकास के पीछे धन का ही हाथ होता है। ज्ञान, चरित्र, श्रम को भी धन की उपमा दी गयी है, लेकिन इनका उपयोग भी धन कमाने के लिए किया जाता रहा है। धन बहुत बड़ी ताकत है, जिसे नकारा नही जा सकता। संस्कृत में सुभाषितानि है-
                                          यस्यास्ति वितं स नर: कुलीन 
                                          स पंडित: स श्रुतवान् गुनग्य 
                                          स एव वक्ता स च दर्शनीय 
                                          सर्वेगुणा कांचन माश्रयन्ते  ।।1।।    
         अर्थात जिसके पास धन है, वह कुलीन है, पंडित है, गुणवान है। उसे सुना जाता है, वह वक्ता है और दर्शनीय है। अतः यह स्पष्ट है समस्त मानव जाति को धन की आकांक्षा रहती है। धन की इच्छा की सार्वभौमिकता के साथ सर्व सुख की कामना भी निहित है। धन का आवागमन स्वास्थ्यवर्धक है, परन्तु उसका अनुपयोगी संचय दु:खदायी होता है, जैसे पेट में पडा अपच अन्न अजीर्ण पैदा करता है। वस्तुत: मर्यादित धन ऊर्जा देता है और अमर्यादित धन अपने चैन का हरण करता है।
   
         सर्वसुख एवं धनाकांशा के लिए हमारे देश में कार्तिक कृष्णा अमावस्या को धन कि अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मीजी की आराधना तथा पूजा-अर्चना करते है। वेद का उपदेश है- सद्गुणी लक्ष्मी का आह्वान करो न कि दुर्गाणी का। अथर्ववेद में दुर्गणी लक्ष्मी की तुलना उस अमरबेल से की गयी है जो किसी पेड़ पर चढ़कर उसका रक्त चूसती रहती है तथा एक दिन पेड़ पूर्णत सुख जाता है।

          संस्कृत में कहा है- अन्यायोपार्जानि वित्तानी दश वर्षाणि तिष्ठति प्राप्तेतु षोडषे वर्ष समूलं च विनश्यति अर्थात अन्याय से कमाया हुआ धन मात्र दस वर्ष तक रहता है। सोलहवे वर्ष में वह समूल नष्ट हो जाता है अतः इस दिन हम प्रार्थना करे कि अनर्थो की जड़ पापी लक्ष्मी को हमारे से दूर रखे। हम कल्याणकारी लक्ष्मी के स्वामी बने जिससे हमारे साथ सम्पूर्ण वंश का कल्याण हो।


                         दीपावली पर्व से सम्बंधित सन्दर्भ एवं आख्यान    

             दीपावली पावन पुण्य पर्व युगाब्दियो से हमारी आस्था, विश्वास एवं धार्मिक मान्यता का प्रतीक है। यह पर्व हमारे तन, मन एवं मस्तिक में रचा बसा है। यह आज भी उतना ही जीवंत, प्रसन्नता, उल्लासमय एवं प्रेरणादायक है, जितना अपने अभ्युदय काल में था। इसका उदभव स्त्रोत त्रेतायुग है। वर्तमान युग से पहले भी सिंधुघाटी सभ्यता, पूर्व/उत्तर वैदिककाल, गुप्त, मौर्य, शुंग एवं राजपूतवंशीय शासनकाल यह पर्व मनाया जाता था। इसके ऐतिहासिक प्रमाण प्राचीन साहित्य में उपलब्ध है। यह मात्र धार्मिक आस्था परक पर्व नही है, अपितु इसके अनेकानेक आयाम तथा आधार है। यह ज्ञान, विज्ञान, परिज्ञान, अपरा तथा पर प्रज्ञान के उत्कृष्ट सिद्धांतो पर आधारित है। इसकी वैदिक एवं वैदांतिक पृष्टभूमि भी है। तमसो मा ज्योतिर्गमय……  यजुर्वेद के इस मंत्र में परमपिता परमेश्वर से अंधकार से प्रकाश में ले जाने की प्रार्थना की गयी है। दीपक का प्रकाश, सूर्य भगवान के प्रकाश का प्रतीकात्मक अंश है जिसे इस पर्व में अपने गृह में आदर, सत्कार, पूजा, अर्चना द्वारा आमंत्रित करते है। ऐसा हम जीवन में सुख, स्वास्थय, समृद्धि, आनंद तथा अपने सर्वांगीण कल्याण के लिए करते है। दीप जलाते वक्त हम प्रार्थना करते है-
                                        शुभं करोतु कल्याणं आरोग्यंधन संपद: ।
                                        शत्रुबुद्धि विनाशाय दीप ज्योतिनमोस्तुते ।।
           इस प्रकार दीपावली सुख, समृद्धि, उत्साह, उल्लास और उमंग का मंगल पर्व है। इसे दीपावली, दीवाली, दीपोत्सव आदि कई नामो से उच्चारित किया जाता है, परन्तु इसका मूल तथा केंद्रीभूत आशय एवं प्रयोजन है- जीवन में प्रकाश का आगमन, स्वयं एवं सभी के लिए 'सर्वेभवन्तुसुखिन:', समृद्धि एवं आनंद की कामना से प्रार्थना करने का पवित्र त्यौहार है।
           दीपावली पर्व के प्रादुर्भाव कि तिथि तथा कारण आज भी शोध का विषय है। यधपि जिस मास, पक्ष, तिथि को हम इसे युगो से मानते है, वह सर्वमान्य है। यह तथ्य भी है कि भगवान राम लंका विजय के पश्चात् अयोध्या आये एवं उनके राज्याभिषेक की ख़ुशी में प्रजा ने दीपक जलाये। हालाँकि तुलसीकृत रामचरित मानस तथा महर्षि वाल्मिकीकृत रामायण में भगवान राम के अयोध्या पहुचने की तिथि का उल्लेख नही है। वाल्मिकी रामायण के युद्धकाण्ड में भगवान राम का पंचमी तिथि को भरद्वाज आश्रम (प्रयाग) में रुकने का उल्लेख है। अनुमान है यह कार्तिक कृष्ण पंचमी ही रही होगी और अयोध्या पहुचने तक अमावस्या आ गयी होगी तथा उनके स्वागत में दीपोत्सव मनाया गया होगा। दीपावली पर्व को इसी परिपेक्ष्य में देखना ही उचित होगा।
           मार्कण्डेय पुराण के अनुसार समस्त सृष्टि की मूलभूत आधशक्ति महालक्ष्मी है। यह सत, रज और तम तीनो गुणो का समन्वय है। इसे त्रिपुरा शक्ति भी कहा गया है। ज्ञान रूप में यह सत्व गुण प्रधान सरस्वती, इच्छा रूप में यह रजोगुण प्रधान लक्ष्मी तथा क्रिया रूप में यह तमोगुण प्रधान काली के रूप में उपास्य होती है।
           'समुन्द्र मन्थनाख्यान' के अनुसार मंदर नामक पर्वत मन्मथ दण्ड से संघर्ष रूप मंथन से प्राप्त चतुर्दश रत्नो में महालक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ था वह दीपावली का दिन ही था। देवताओ ने उन्हें भगवान विष्णु की पत्नी स्वीकार कर उन दोनों का विवाह करा दिया था।
            दानवीर राजा बलि ने जब अपने बाहुबल से तीनो लोको पर विजय प्राप्त कर ली तो बलि से भयभीत देवताओ की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने वामन रूप धारण कर राजा बलि से तीन पग पृथ्वी दान के रूप में मांगी थी। महाप्रतापी राजा बलि ने सब कुछ समजते हुए भी याचक को निराश नही किया और तीन पग पृथ्वी दान में दे दी थी। भगवान विष्णु ने तीन पग में तीन लोको को नाप लिया था। राजा बलि की दानवीरता से प्रभावित हो विष्णु भगवान ने उन्हें पाताल लोक का राज्य तो लौटा ही दिया, साथ ही यह आश्वासन भी दिया कि उसकी स्मृति में भू-लोक वास सदैव प्रति वर्ष दीपावली मनाएंगे।
             दीपावली के ही दिन राक्षसो का वध करने के लिए माँ देवी ने महाकाली का रूप धारण किया था। राक्षसो का वध करने के बाद भी जब महालक्ष्मी का क्रोध कम नही हुआ, तब भगवान शिव के शरीर स्पर्श मात्र से उनका क्रोध समाप्त हुआ। इस घटना कि स्मृति में उनके शांत स्वरुप लक्ष्मी जी का पूजन प्रारंभ हुआ, जो अब भी किया जाता है।
             इसके अलावा भी कई संदर्भ दीपोत्सव से जुड़े हुए है:-
           1. कार्तिक अमावस्या के दिन भगवान श्री कृष्ण सर्वप्रथम ग्वाल बालो के संग वन में गाये चराने गए थे। सांयकाल उनकी वापसी पर गोकुलवासियों ने घर-घर दीप जलाकर उनका स्वागत किया।
           2. ऋषि उद्धालक के पुत्र नचिकेता जन्म मरण का रहस्य जानने के लिए यम के पास गए तब यमराज ने उनकी कई प्रकार से परीक्षा ली थी। नचिकेता परीक्षा में सफल रहे और यम ने प्रसन्न होकर उन्हें मृत्यु पर विजय का ज्ञान दिया। नचिकेता कि पुन: पृथ्वी पर वापसी पर पृथ्वीवासियो ने घी के दिए जलाकर उनका स्वागत किया। कहा जाता है कि आर्यावर्त की यह पहली दीपावली थी।
           3. बौद्ध धर्म के प्रवर्त्तक गौतम बुद्ध जब 17 वर्ष बाद अनुयायियो  के साथ अपने गृह नगर कपिलवस्तु लौटे तो उनके स्वागत में लाखो दीप जलाकर दीपावली मनाई थी। साथ ही महात्मा बुद्ध ने अपने प्रथम प्रवचन के दौरान 'क्वअप्पो दीपोभव' का उपदेश देकर दीपावली को नया आयाम प्रदान किया था।
           4. सम्राट विक्रमादित्य का राज्याभिषेक दीपावली के ही दिन हुआ था।
           5. सम्राट अशोक ने दिग्विजयी अभियान इसी दिन प्रारम्भ किया था। इसी ख़ुशी में दीपदान किया गया था।
           6. जैन धर्म के 24वें तीर्थकर महावीर स्वामी ने भी दीपावली के दिन निर्वाण प्राप्त किया था।                    7. आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन सन् 1883 अजमेर में अपने प्राण त्यागे थे। आर्य समाज में इस दिन का महत्त्व है।
           8. महाराज धर्मराज युधिष्ठर ने इसी दिन राजपूत यज्ञ किया था। दीप जलाकर खुशियां मनाई थी।
           9. अमृतसर के प्रख्यात स्वर्ण मंदिर का निर्माण भी दीपावली के दिन ही प्रारम्भ हुआ था।                      10. इस प्रकार अनेकानेक संदर्भो में दीपावली (दीपोत्सव) जुड़ा हुआ है। ऋतु विज्ञान की दॄष्टि से यह पर्व दो ऋतुओ में संधिकाल में मनाया जाता है। यह पर्व यह संकेत देता है कि अब शीतकाल आ रहा है और उसके अनुरूप हमें अपनी दिनचर्या करनी है। वास्तव में यह पर्व सर्वजनहिताय सामाजिक चेतना का मूर्त्तरूप है।
           11. यह पर्व कृषि विज्ञानं के सिद्धांतो पर भी आधारित है। जिस समय यह पर्व मनाया जाता है, उस समय खरीफ की फसल किसानो को प्राप्त हो जाती है। मानव अनाज विक्रय कर धन प्राप्त करता है। श्रम से प्राप्त प्रसन्नता दीपोत्सव के रूप में प्रकट होती है। यह पर्व नव सस्येष्टि के रूप में भी जाना जाता है।
           12. पर्यावरण कि दॄष्टि से भी यह पर्व समस्त वायुमंडल को रोगाणु रहित बनता है। वर्षा ऋतु से व्याप्त अनेकानेक विषाणु, मच्छरादि उत्पन्न हो जाते है। उस पर्व के आगमन के पूर्व सभी लोग अपने घर की सफाई तथा रंग रोगन करते है, इससे विषैले जीव जंतु नष्ट हो जाते है। दीपावली पर पटाखो से उत्पन्न ऊष्मा व दुर्गन्ध जिवाणुओं/मच्छरो को नष्ट कर देती है। इस प्रकार वर्षा ऋतु का प्रदूषण भी समाप्त हो जाता है।
                                   
                                          यहाँ तक प्रथम चरण समाप्त होता है।